Friday, January 24, 2014

आदत ...

न तो कोई हारा है, और न ही कोई जीता है 
पर, मगर, जिसे देखो, है वही मुगालते में ? 
… 
गर, हजम न भी हो तो कोई बात नहीं, 
इक बार … 
कड़वी दवा को भी तो आजमा के देखो ? 
… 
साठ साल… साठ महिने 
चलो … ये भी खूब रही ?
… 
अब हम भी 'उदय', उनके जैसे हो गए हैं 
जुबां पे कुछ, दिल में कुछ और होता है ? 
… 
गर ये तमाशा है, तो तमाशा ही सही 
सड़क पे बैठने की, आदत पुरानी है ? 
… 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर

देवदत्त प्रसून said...

मित्रवर!गणतन्त्र-दिवस की ह्रदय से लाखों वधाइयां !
रचना अच्छी है !
वास्तव में कटुता के पीछे एक लाभकारी मधुरता छिपी होहै यदि उस में द्वेष-ईर्ष्या का समावेश न हो!