Wednesday, August 31, 2011

नेक नीयत व इकबाल की ईद !

इकबाल जिसकी उम्र महज १९ साल थी जो साफ़ दिल का नेक व ईमानदार बालक था किन्तु आज उसके मन में बार बार यह सवाल गूँज रहा था कि कल 'ईद' के दिन उसे अपनी छोटी बहन 'खुशी' को 'ईदी' के रूप में एक बेहद ख़ूबसूरत 'परी ड्रेस' तोहफे में देना है और उसने ड्रेस भी पसंद कर रखी थी जिसकी कीमत ७५ रुपये थी, वह जब भी दुकान के पास से गुजरता तो ड्रेस को देखकर रुक-सा जाता था, ऐसा नहीं था कि वह अपने अम्मी-अब्बू को कह कर उनसे वह ड्रेस नहीं खरीदवा सकता था, खरीदवा सकता था किन्तु वह ऐसा करना नहीं चाहता था वरन वह अपनी मेहनत से कमाए रुपयों से ही 'परी ड्रेस' खरीद कर अपनी बहन 'खुशी' को 'ईद' पर तोहफे के रूप में देना चाहता था !

इसलिए ही वह स्वयं पिछले ४-५ हफ़्तों से प्रत्येक रविवार के दिन सुबह जल्दी उठकर अपने बगीचे से 'गुलाब' के सारे फूल तोड़कर उन्हें बेचने 'सांई दरबार' जाकर उन्हें बेच-बेच कर रुपये इकट्ठे कर रहा था इस तरह उसने धीरे-धीरे ६५ रुपये इकट्ठे कर लिए थे उसके पास महज १० रुपये कम थे ! संयोग से कल रविवार के दिन ही 'ईद' आ गई थी, इसी कारण उसे सारी रात बेचैनी थी कि किसी भी तरह जल्दी उठकर 'सांई दरबार' जाकर फूल बेच कर 'परी ड्रेस' खरीद कर 'ईद का पर्व' अम्मी, अब्बू व 'खुशी' के सांथ हंसी-खुशी मना सके, इसी बेचैनी के सांथ उसने सारी रात बिस्तर पर करवट बदल-बदल कर गुजारी और जैसे ही सुबह के चार बजे वह उठ कर जल्दी जल्दी तैयार होकर बगीचे में पहुंचा तथा उसने सारे 'गुलाब' के फूल तोड़ लिए, अब इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य कि - आज बगीचे में उसे महज चार फूल ही मिले, इसे दुर्भाग्य इसलिए कह सकते हैं कि - वह दो-दो रुपयों में एक एक फूल बेचा करता था, इस तरह उसे चारों फूल बेच कर मात्र आठ रुपये ही मिलने वाले थे जो ड्रेस की कीमत से दो रुपये कम हो रहे थे !

इस कश-म-कश की स्थिति में वह 'सांई राम' का ध्यान करते हुए 'सांई दरबार' पंहुच कर द्वार के पास सड़क किनारे खड़े होकर फूल बेचने लगा, अभी दो फूल ही बिके थे कि उसकी नजर सड़क की दूसरी तरफ पडी, एक व्यक्ति का कार में बैठते बैठते पर्श जमीं पर गिर गया, इकबाल दौड़ कर जैसे ही वहां पहुंचा कार निकल चुकी थी उसने पर्श हाँथ में उठाकर देखा उसमें एक एक हजार व पांच पांच सौ के ढेर सारे नोट रखे थे तथा पर्श में ही उसे एक टेलीफोन नंबर लिखा हुआ मिल गया, इकबाल कुछ देर वहीं खड़े होकर सोच-विचार में डूब गया उसकी चिंता टेलीफोन करने पर दो रुपये खर्च करने को लेकर हो रही थी क्योंकि वैसे ही सारे फूल बेचने के बाद भी दो रुपये कम पड़ने वाले थे किन्तु सोच-विचार में ज्यादा न उलझते हुए उसने 'सांई राम' का नाम लेकर दो रुपये खर्च करते हुए टेलीफोन लगाया तथा सामने वाले व्यक्ति को उसके पर्श के गिरने व उसे मिल जाने की खबर देकर वह उस व्यक्ति का इंतज़ार करते हुए पुन: फूल बेचने खडा हो गया !

लग-भग ५-७ मिनट बाद ही कार उसके पास आकर रुकी और वह सज्जन निकले जिनका पर्श गिरा था इकबाल ने उनके आने पर ही पर्श उन्हें सौंप दिया, पर्श में सब कुछ सही सलामत देख कर वह सज्जन अत्यंत ही प्रसन्न हुए तथा इकबाल की नेक-नीयत से बेहद ही प्रभावित हुए, बातचीत में इकबाल के बारे में उन्हें सारी जानकारी मिल गई तथा वह समझ गए की इकबाल 'खुदा' का एक नेक बंदा है उसे किसी भी तरह के रुपयों का इनाम देकर दुखित करना उचित नहीं होगा इसलिए उन्होंने १० रुपये का नोट देकर दोनों फूल खरीदते हुए अनुरोध किया कि वह इसका प्रतिरोध न करे, कुछ देर चुप रहते हुए इकबाल ने 'सांई महिमा' समझ प्रतिरोध नहीं किया !

इकबाल हंसते-मुस्कुराते 'सांई' का शुक्रिया अदा करते हुए अपनी पसंद की 'परी ड्रेस' खरीद कर घर पहुंचा और परिवार के सांथ 'ईद' की खुशियों में शामिल हो गया, अपनी बहन को ड्रेस भेंट कर अम्मी-अब्बू की दुआएं लेकर खुशियाँ मना ही रहा था कि उन्हीं सज्जन को जिनका पर्श गिर गया था उन्हें अपने घर पर देख वह आश्चर्य चकित हुआ इकबाल के अम्मी-अब्बू उस सज्जन के सेवा-सत्कार में लग गए गए तो वह और भी ज्यादा अचंभित हुआ, हुआ दर-असल यह था कि वह सज्जन कोई और नहीं वरन बम्बई फिल्म इंडस्ट्री के जाने-मानें निर्माता-निर्देशक थे जो इकबाल की नेक-नीयत से अत्यंत ही प्रभावित होकर उसे अपनी आगामी फिल्म में बतौर हीरो साइन करते हुए नगद एक लाख रुपये की राशि भेंट कर 'ईद' की मुबारकबाद देकर चले गए, इकबाल के घर में 'ईद' की खुशियों का ठिकाना न रहा इकबाल व परिवार ने 'ईद का पर्व' बेहद हर्ष-व-उल्लास के सांथ मनाया, इकबाल की नेक-नीयत व मेहनत ने उसे ४-५ सालों में ही एक सफल कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया !!

Tuesday, August 30, 2011

बेरोजगारी के दिन !

बेरोजगार, और बेरोजगारी के दिन
बेरोजगारी के दिनों में
बेरोजगार
कुछ गुमसुम-गुमसुम
कुछ सहमा-सहमा सा रहता है !

जितनी लकीरें उसके चेहरे पे दिखती हैं
उससे कहीं ज्यादा लकीरें
उसके जेहन में बनते-मिटते रहती हैं !

वह, हर पल, हर क्षण
चिंतन, मनन
किसी न किसी गुन्ताड में रहता है
उसका मन, समुद्र की तरह
हर पल, हर क्षण
खलबल-खलबल करते रहता है !

क्यों, क्योंकि
वह एक बेरोजगार होता है
बेरोजगारी का मतलब
पेंट में, शर्ट में, जेब तो होना, पर खाली होना !

उसके, मन में
तरह तरह की इच्छाएं जन्मती हैं
और कुछ पल में ही दम तोड़ते रहती हैं !

होता है अक्सर
ऐसा, बिलकुल ऐसा ही, बेरोजगारी के दिनों में
बेरोजगार, नंगे पांव, हौले-हौले, सहमे-सहमे
इस ओर से उस ओर - उस ओर से इस ओर
चल रहा होता है, बढ़ रहा होता है
किसी चाही - अनचाही, उम्मीद की किरण की ओर !

... राईट टू रिजेक्ट / प्रिंट मीडिया पर !!



अन्न का दाना ...

भरने को तो मन रूपी पेट
दौलत से भर जाएगा
पर, जब आयेगी नींद
तुम्हें, हमें
मखमली चादर पर
करवट बदल-बदल कर
तुम, हम
कैसे रातें काटेंगे
नींद नहीं आयेगी, तब तक
जब तक, अन्न का दाना
तुम्हारे, हमारे
पेट के अन्दर जाएगा !

सोचो, कैसे तड़फ-तड़फ कर
तुम, हम
खुद
को कोसेंगे
रखा हुआ होगा, छप्पन भोग
तुम्हारे, हमारे
सामने, आगे-पीछे, पर
तुम, हम
सुगर, डायबिटीज, व अन्य
तरह तरह की बीमारियों के कारण
छू भी पाएंगे
मुंह में टपक-टपक कर लार
तुम्हें, हमें, ललचाएगी
सोचो, भूखे, ललचाये
तुम, हम
बिस्तर पर, रात कैसे काटेंगे !!

Monday, August 29, 2011

'राईट टू रिजेक्ट' रूपी कदम निसंदेह लोकतंत्र को मजबूत करेगा !

लोकतांत्रिक प्रणाली की सर्वाधिक मजबूत व सशक्त व्यवस्था यदि कोई है तो निसंदेह स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली है, स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया निश्चित ही हमारे लोकतंत्र को मजबूती प्रदाय करती है, ये और बात है कि इस मजबूत प्रणाली को भी छल, बल व प्रलोभन के आधार पर प्रभावित किया जा सकता है यह भी कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि जन समुदाय को छल, बल व प्रलोभन के आधार पर प्रभावित किया जाता रहा है, किया जा रहा है लेकिन फिर भी स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली हमारे संविधान की सशक्तता की एक बेहद प्रभावशाली व बेहतरीन मिशाल है !

स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली के माध्यम से जनता को अपने प्रतिनिधी चुनने का विशेषाधिकार प्रदाय किया गया है यह अधिकार इतना सशक्त व प्रभावी है कि समय समय पर अर्थात एक नियमित व निर्धारित अंतराल के बाद जनता स्वयं अपने लिए अपने पसंद का प्रतिनिधी चुन सकती है, सांथ ही सांथ यह भी प्रावधान है कि यदि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधी से संतुष्ट नहीं है तो वह एक निर्धारित समयावधि के बाद उन्हें स्वमेव बदल सकती है, किन्तु इस बदलाव के लिए एक निर्धारित समय सीमा का इंतज़ार करना पड़ता है जो पांच साल बाद की होती है अर्थात आगामी चुनाव में ही बदलाव संभव होता है !

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई चुना हुआ प्रतिनिधी जन भावनाओं पर खरा नहीं उतरता है तब जनता को उसे हटाने अर्थात बदल देने का अधिकार मिलता है किन्तु वह अधिकार अगले चुनाव अर्थात पांच साल बाद ही मिलता है, इन पांच सालों तक वह चुना हुआ प्रतिनिधी अपने आप में स्वतंत्र होता है यदि वह चाहे तो जन भावनाओं का आदर करे, और न चाहे तो वह जन भावनाओं को नजर अंदाज कर दे ! इन परिस्थितियों में यह चुनाव प्रणाली अपने आप में सवालिया निशान खडा कर देती है, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जब एक जनता द्वारा चुना हुआ प्रतिनिधी चुनाव जीतने के बाद खुद की मर्जी का मालिक हो जाए, दूसरे शब्दों में कहें तो 'बेलगाम घोड़ा' हो जाए तब निसंदेह वह चुना हुआ प्रतिनिधी 'लोकतंत्र रूपी बगिया' को चौपट ही करेगा !

निसंदेह इन परिस्थितियों में वह चुनाव जीता हुआ प्रतिनिधी जन भावनाओं का खुल्लम-खुल्ला मजाक उड़ायेगा, उस चुने हुए प्रतिनिधी का यह व्यवहार निश्चित ही स्वतन्त्र, निष्पक्ष व मजबूत लोकतंत्र के नजरिये से भी अहितकर होगा, यहाँ यह कहना भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वर्त्तमान में ऐसे हालात देखने व सुनने को मिल रहे हैं ! इन विकट परिस्थितियों के बारे में, इन विकट परिस्थितियों के लिए, हमें आज से ही घोर व सशक्त विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है, यदि समय रहते विचार-विमर्श कर सार्थक कदम नहीं उठाये गए तो निसंदेह हमारा लोकतंत्र दिन-व-दिन कमजोर होगा !

इस मुद्दे के सांथ सांथ एक और मुद्दा आज-कल लोगों के जेहन में उमड़ रहा है वह मुद्दा यह है कि इस स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव प्रणाली में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि यदि चुनाव लड़ रहे सारे के सारे प्रत्यासियों में से, यदि कोई भी प्रत्यासी, मतदाता को पसंद नहीं है तब वह क्या करे अर्थात वह कौन-सा रास्ता चुने, मतदान में हिस्सा न लेने का या उपलब्ध प्रत्यासियों में से ही किसी प्रत्यासी को चुन लेने का, यहाँ पर मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि इन हालात में 'अंधों में काणे को राजा बनने' का सुअवसर मिल जाएगा तात्पर्य यह है जनता न चाहकर भी किसी न किसी के पक्ष में मतदान कर चुनाव जितवा देगी, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए, ये परिस्थितियाँ निसंदेह निरंतर लोकतंत्र को कमजोर करेंगी !

लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में यह भी प्रावधान होने चाहिए कि मतदान के समय जनता अर्थात मतदाता को जब कोई भी प्रत्यासी योग्य व उचित प्रतीत न लगे तब जनता अर्थात मतदाता उस प्रत्यासी या उन प्रत्यासियों को मतदान के समय ही 'रिजेक्ट' कर दे, यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि जनता के पास 'राईट टू रिजेक्ट' के रूप में संवैधानिक अधिकार होना चाहिए, मैं यहाँ यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि यह प्रावधान आने से लोकतंत्र की गरिमा धूमिल नहीं होगी वरन लोकतंत्र और भी सशक्त, प्रभावी व आकर्षक होगा, यह प्रणाली हमारे लोकतंत्र को, हमारे संविधान को, हमारे देश को दुनिया के मंच पर बेहद प्रखर व सशक्त रूप में प्रस्तुत करेगी !

मैं यह नहीं कहता कि जिन जनमानस के जेहन में यह विचार उमड़ रहे हैं उसके पीछे उनका कोई निहित स्वार्थ भी समाहित होगा, शायद कतई नहीं, मेरा तो इस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि 'राईट टू रिजेक्ट' का प्रावधान शीघ्र-अतिशीघ्र अमल में लाना लोकतंत्र को मजबूत करेगा ! आयेदिन हम देखते हैं, महसूस करते हैं कि वर्त्तमान में जो प्रत्यासी चुनाव मैदान में होते हैं उनकी व्यवहारिक व सामाजिक छबि कितनी सकारात्मक व नकारात्मक होती है, इन हालात में न चाहते हुए, न चाहकर भी, ऐसे प्रत्यासी चुनाव जीत कर आ जाते हैं जो अपने आप में एक सवालिया निशान होते हैं, खैर यह मुद्दा बहस व चर्चा का नहीं है और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि आज अगर चर्चा होनी चाहिए तो 'राईट टू रिजेक्ट' पर होनी चाहिए क्योंकि यह वक्त की मांग है, वक्त की जरुरत है, इस मुद्दे पर मेरा व्यक्तिगत मानना है कि 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी कदम अर्थात प्रावधान निसंदेह लोकतंत्र को मजबूत करेगा !

जद्दो-जहद !

मोहब्बत में, वादों में, सच्चाई में
दिल, दिमाग को, आपस में जद्दो-जहद करते देखा है !

जिन्दगी में, जिन्दगी से, जिन्दगी को
रूठते-मनाते, रोते-हंसते, पल-पल आगे बढ़ते देखा है !

सत्ता के गलियारों से साहित्यिक चौपालों तक
छल, कपट, प्रपंचरूपी मुखौटों को आगे बढ़ते देखा है !

नहीं था रंज, हार-जीत का हमें
भेद-भाव के बीच भी, इरादों को आगे बढ़ते देखा है !

तंग, मुश्किल, परेशां, घड़ी में भी
हमने खुद को, कदम-दर-कदम आगे बढ़ते देखा है !!

Sunday, August 28, 2011

काश ! ये हुनर हमको भी आया होता !!

सच ! जब अनशन बना हो देश में, जनक्रान्ति की आग
फिर, किसी कोने में बैठ के, गुमसुम देखा नहीं करते !!
...
ये माना हर किसी की होतीं, अपनी-अपनी विचारधारा हैं
मगर जब बात हो मुल्क की, तब पीछे हटा नहीं करते !!
...
कोई समझता क्यों नहीं, या कोई समझना नहीं चाहता
मुल्क के हालात और युवादिल, हो रहे आग के शोले हैं !
...
हाल-ए-वतन बद से बदतर होते जान पड़ रहे हैं 'उदय'
उफ़ ! नरमी के सांथ-सांथ, कहीं गर्मी न उमड़ जाए !!
...
सच ! सलाखों से भी ज्यादा मजबूत कायदे-क़ानून हुए हैं
इस पार के लोग इस पार, उस पार के लोग उस पार हुए हैं !
...
नहीं, आँखे बंद करने की कसम नहीं खाई है
कुछ कसम तो खाई है, पर आँखें बंद कर खाई है !
...
करते भी क्या आकर तेरे छज्जे पे परिंदे
कैद होने से फना होना मुनासिब समझा !
...
हम चुप-चाप यूं ही ठगे जाते रहे
शायद ! किसी दिन तो तुम्हें हम रास आएंगे !!
...
सुनते हैं छपना-छपाना भी एक हुनर है 'उदय'
काश ! ये हुनर हमको भी आया होता !!

Saturday, August 27, 2011

सच ! ये कैसा आदमी है !!

लोग कहते हैं
चौहत्तर साल का बूढा है
सातवीं-आठवीं पास है
गाँव का आदमी है
मंदिर में सोता-जगता है
बहुत, सीधा-सरल
दयालु-कृपालु स्वभाव का है
उसे अपनी नहीं
समाज की, देश की चिंता है
इसी चिंता के लिए
वह, भ्रष्टाचार से
लड़ रहा है, अड़ रहा है !
सच ! ये कैसा आदमी है !!

जिसे अपनी नहीं
जनमानस की चिंता है !
ये कैसा कलयुग है
शायद
कलयुग नहीं, हमारा भ्रम है !
आओ, देखो, चलो
कैंसे, एक अकेले, बूढ़े -
और जज्बाती अन्ना ने
दृढ निश्चय कर
आगे कदम बढाया है
सच ! ये कैसा आदमी है !!

जिस भ्रष्टाचार से
आप, हम, सब, सारे लोग
परेशां, हैरान, त्रस्त हैं !
उसी भ्रष्टाचार को
ध्वस्त करने
वह
अड़ गया है, भिड़ गया है !
आज
चारों ओर, यही नारा गूँज रहा है
तू भी अन्ना -
मैं भी अन्ना -
आज सारा देश है अन्ना !
सच ! ये कैसा आदमी है !!

आधी आजादी !!

हमें
मिली थी एक आजादी
आज से पहले भी
धीरे-धीरे, हुई वो धूमिल
पर
आज हमें
ये दृढ निश्चय करना है
जोश में आकर
हमको, होश न खोना है !

वरना
फिर से
ऐसा, फिर, हो सकता है
कि -
जिस आजादी को
हमने, पाकर, खोया है
वैसे दिन
फिर से भी आ सकते हैं !

ये माना
हम मान रहे हैं
जीत हमारी, हुई है आधी
पूरी जीत, जीत की खातिर
संघर्षों के दिन-रात
अभी, और बिताना है
आधी जीत को -
पूरी जीत बना कर ही
हमें जीत का जश्न मनाना है !!

Friday, August 26, 2011

'कथनी व करनी' में फर्क !

एक समय एक 'सोने की चिड़िया' के नाम से जाने जाने वाले राज्य में राक्षसों का कब्जा था तथा सभी राक्षस अपनी अपनी मर्जी से सम्पूर्ण राज्य का शोषण व जनता पर अत्याचार कर रहे थे, राज्य में बढ़ते शोषण व अत्याचार को देख कर राज्य में एक 'लंगोटीधारी बाबा' प्रगट हुए तथा उन्होंने राक्षसों को सदभाव से समझाने का प्रयास किया कि - वे जनमानस पर अत्याचार करना बंद कर दें किन्तु वे नहीं मानें और अत्याचार में बढ़ोतरी करने लगे, तब बढ़ते अत्याचार व शोषण को दूर करने के लिए 'लंगोटीधारी बाबा' ने अपनी आत्म शक्तियों के बल पर राज्य के समस्त जनमानस को अपने सांथ जोड़ लिया तथा 'घोर तप' के माध्यम से अपनी शक्तियों को विशाल रूप प्रदाय करते हुए राक्षस सेना से भिड़ गए, परिणामस्वरूप राक्षस सेना परास्त हुई तथा उन्हें राज्य को छोड़कर जाना पडा ! राक्षसों के जाते ही राज्य में जनभावनाओं के अनुरूप कुछेक प्रभावी जननायकों की नेक-नियति रूपी 'कथनी' के आधार पर 'जनतंत्र' का गठन किया गया तथा सम्पूर्ण राज्य में खुशहाली की लहर दौड़ पडी ! खुशहाली की लहर देख व 'जनतंत्र' की स्थापना के बाद 'लंगोटीधारी बाबा' अंतर्ध्यान हो गए, किन्तु यह खुशहाली की स्थिति ज्यादा समय नहीं रही और कुछ साल गुजरने के बाद ही राज्य में पुन: शोषण व अत्याचार का माहौल स्थापित हो गया, जिन जननायकों ने नेक-नियति की 'कथनी' भरी थी उनकी 'करनी' में विरोधाभाष ने जन्म ले लिया, परिणीति यह हुई कि सम्पूर्ण राज्य में शोषण व अत्याचार का राज्य स्थापित हो गया तथा जनमानस त्राहीमाम त्राहीमाम करने लगी ... किन्तु इस बार राज्य में राक्षसों की वजह से नहीं वरन अपने ही लोगों की 'कथनी व करनी' में फर्क के कारण शोषण व अत्याचार का वातावरण निर्मित हुआ था अर्थात खुद को जनतंत्र के मसीहा समझने वाले लोग कहते कुछ थे और करते कुछ थे ... अत: राज्य की जनता 'लंगोटीधारी बाबा' के 'घोर तप' रूपी आदर्श मार्ग पर चल पडी ... !!

सत्य-अहिंसा के पथ पर !!

चलो लड़ लें
किसी किसी से, आज लड़ ही लें
किसी किसी से ही क्यों
किसी से भी लड़ लें
जब लड़ना ही है, तब सोचना कैसा !
उठो, बढ़ो, और लड़ लो
किसी से भी, जो सामने नजर आए, उसी से लड़ लो
फिर, भले वह छोटा हो, या बड़ा
क्या फर्क पड़ता है, छोटे या बड़े होने से !!

जब, सिर्फ, लड़ना ही मकसद है
तब, पटकनी खा जाओगे, या पटकनी दे दोगे
किसी से पिट जाओगे, या पीट दोगे !
सोच लो, समझ लो
लड़ना, और लड़ कर, जीत -
जीत जाने में, फर्क, बहुत फर्क होता है
हारने को तो कोई भी, कहीं भी, किसी से भी हार जाता है
और जीत का भी, लग-भग यही पैमाना होता है !!

पर
वह इंसान, कभी नहीं हारता, जिसकी लड़ाई
सत्य के सांथ, अहिंसा के पथ पर होती है
फिर, भले चाहे, लड़ाई -
सबसे ताकतवर आदमी से ही क्यों हो !
ऐसी लड़ाई, लड़ाइयों में, अक्सर
कभी हार कर, तो कभी जीत कर
जीतता वही है
जो होता है, सत्य-अहिंसा के पथ पर !!

Thursday, August 25, 2011

... सब की मंशा जाहिर हो गई !!

हद हो गई, अरे भाई
आज सर्व दलीय बैठक में
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर
सब की मंशा जाहिर हो गई !

पक्ष, विपक्ष, समकक्ष
सब के सब मौन हो गए
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर
सब की मंशा जाहिर हो गई !

खेल खिलाड़ी खेल रहा था
सारे एम्पायर्स सन्न हो गए
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर
सब की मंशा जाहिर हो गई !

कहते-सुनते, सुनते-कहते
सब के सब, एक हो गए
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर
सब की मंशा जाहिर हो गई !!

Wednesday, August 24, 2011

लालची कुत्ते और असहाय शेर !

एक दिन शाम को अंधेरा होते होते जबरदस्त दहाड़ की आवाज सुन गाँव के सारे कुत्ते घबडा गए, डर कर दुम दबा कर अपनी अपनी मित्र मंडली के सांथ रात भर डरे-सहमे छिपे रहे, अगले दिन सुबह होने पर गाँव के सारे कुत्ते डरे-सहमे नजर आए तथा डरी-सहमी हालत में ही एक-दूसरे को शालीनता से घूरते नजर आए किन्तु अचम्भे की बात तो यह थी कि गाँव के सारे कुत्ते अर्थात लगभग 'पांच सौ - साढ़े पांच सौ' सारे के सारे कुत्ते सहमे व डरे हुए थे इसलिए आपस के लड़ाई-झगड़ों को भुलाते हुए सब एक स्थान पर एकत्रित होकर आपस में मंत्रणा करने लगे चूंकि सभी डरे-सहमे हुए थे इसलिए सब एक-दूसरे के प्रति नम्र थे, नम्रता का कारण भी जायज था कि कल रात जो दहाड़ की आवाज सुनी थी वह सभी ने सुनी थी और सभी ने सारी रात डरी-सहमी हालत में ही गुजारी थी, उन सब का भय व डर भी जायज था क्योंकि उन्होंने जो आवाज सुनी थी वह कोई छोटी-मोटी आवाज नहीं थी जंगल के राजा बब्बर शेर की थी ! सभी कुत्तों के डरने व चिंता करने का कारण बेहद गंभीर था उन सभी के मन में भय व्याप्त हो गया था कि यदि बब्बर शेर ने गाँव में प्रवेश कर लिया तो उनकी बादशाहत ख़त्म हो जायेगी और सभी को शेर की गुलामी करनी पड़ेगी, नहीं तो शेर एक एक कर सभी को मार डालेगा, इस डर व भय ने सभी कुत्तों को एक जुट कर दिया तथा सभी आपस के छोटे-मोटे झगड़ों को भुला कर संघठित होने को तैयार हो गए !

संघठित होने के बाद भी सभी की दुम दबी-दबी सी थी क्योंकि सभी जानते थे कि बब्बर शेर तो आखिर बब्बर शेर होता है अगर उनका दांव उलटा पड़ गया तो लेने-के-देने भी पड़ सकते हैं ! सभी कुत्तों ने मिलकर तय किया कि शेर के दहाड़ने की आवाज नदी के दूसरे किनारे की ओर से आई थी इसलिए सभी के सभी कुत्ते एकजुट होकर नदी के गाँव की तरफ के किनारे पर फ़ैल कर बैठ गए, योजनानुसार शाम होते ही जैसे ही शेर नदी के दूसरे छोर पर नजर आया सारे के सारे कुत्ते उसे देखकर जोर-जोर से भौंकने लगे, इतने सारे कुत्तों को एक सांथ देख कर शेर भी अचंभित-सा खडा रहा, हुआ ये कि सारी रात सारे कुत्ते चौकन्ने रहे, परिणामस्वरूप शेर के दहाड़ने की आवाज नहीं आई, एक तरह से कुत्ते अपने 'मिशन' में कामयाब रहे दूसरे दिन फिर सारे के सारे कुत्तों ने पहले जैसे नदी के तट पर इकट्ठे हो गए जैसे ही शेर नजर आया फिर सब मिलकर एक सांथ भौंकने लगे, हुआ ये कि आज भी शेर वहीं शांत घूरता बैठा रहा, यह सिलसिला चलता रहा कुत्ते अपनी रणनीति में सफल रहे तथा गाँव में राज करते रहे !

बब्बर शेर यह सब खामोश होकर नदी के दूसरे तट से देखता रहा किन्तु शेर ने हिम्मत नहीं हारी वह जानता था कि सारे कुत्ते संघठित होकर उसे डराने का प्रयास कर रहे हैं इसलिए उसने जोश-खरोश में न आकर सुनहरे अवसर के इंतज़ार में नदी के इस ओर छलांग लगाने का विचार नहीं बनाया तथा वहीं बैठकर उस घड़ी का इंतज़ार करने लगा जब इन लालची व भ्रष्ट कुत्तों को सबक सिखा सके ! समय गुजरने लगा कुत्ते मौज-मजे मारते रहे तथा शेर इंतज़ार करता रहा, फिर अचानक शेर को एक "खुंखार शेर" नजर आया जिसे उसने सारा किस्सा सुनाया, किस्सा सुनकर दोनों ने मिलकर संघठित होकर कुत्तों को सबक सिखाने की योजना बनाई, योजना के अनुसार जब सारे कुत्ते नदी के दूसरे तट पर इकट्ठा होकर डराने आते तब एक शेर नदी के तट पर बैठा रहता तथा दूसरे "खुंखार शेर" ने गाँव में घुसकर चुपके-चुपके एक-एक, दो-दो, कुत्तों को मारना और मार कर वहीं फेंक कर आ जाना शुरू किया, यह सिलसिला देख देख कर कुत्ते घवराये तथा यह सोचने पर मजबूर हुए कि - इस समस्या का जल्द हल निकाला जाए यदि हल नहीं निकाला गया तो एक-एक कर सब के सब मारे जायेंगे, फिर सभी कुत्तों ने निर्णय अनुसार, नदी के तट पर जाकर शेर के सामने अपनी-अपनी दुम दबा कर माफी माँगी तथा उसे उसका राज-पाट सौंप दिया तथा खुद नौकर-चाकर की तरह अपना अपना काम करने लगे !!

Tuesday, August 23, 2011

संसद की गरिमा !

होना चाहिए, हर किसी को होना चाहिए
ख्याल
'संसद की गरिमा' का
क्यों, क्योंकि
हम एक मजबूत व विशाल लोकतंत्र के सदस्य हैं, अंग हैं !

किन्तु
क्या सिर्फ आम नागरिकों का ही कर्तव्य है
कि -
सिर्फ वे ही 'संसद की गरिमा' का ख्याल रखें !

ख़ास तौर पर वे
जो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं
या सिर्फ वे -
जो भ्रष्टाचार विरोधी जन आन्दोलन के अगुवा हैं !

या फिर उनका भी कर्तव्य है
जो संसद में बैठे हैं
संसद की आन, मान, शान हैं !

अब, जब 'संसद की गरिमा' का सवाल उठ ही गया है
तो इस सवाल पर, बहस होनी ही चाहिए
कि-
आखिर वे कौन कौन होने चाहिए
जिन्हें 'संसद की गरिमा' का ख्याल रखना चाहिए !

या फिर
यह सवाल तब-तब खडा होगा
जब-जब आम नागरिक -
अपने लोकतांत्रिक हक़ के लिए आवाज उठाएगा
आवाज बुलंद करेगा !

या फिर
जब कोई संसद में हो रही असंसदीय क्रिया पर
सवालिया निशान खड़े करेगा !

मैं यह जानना चाहता हूँ कि -
जब रिश्वत लेकर, घूंस लेकर, लालच-प्रलोभन में
सवाल पूंछे जाते हैं
तब क्या 'संसद की
गरिमा' का ख्याल नहीं रहता !

मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि -
जब रिश्वत लेकर, घूंस लेकर, लालच-प्रलोभन में
खुल्लम-खुल्ला, सरेआम, पर्दे की आड़ में
मुद्दों पर, पक्ष या विपक्ष में मतदान / समर्थन किया जाता है
तब क्या 'संसद की गरिमा' का ख्याल नहीं रहता !

मैं यह भी जानना-समझना चाहता हूँ कि -
जो लोग 'भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन' को
असंवैधानिक आन्दोलन होने का पाठ पढ़ा रहे हैं
वे बताएं, समझाएं कि -
वर्त्तमान में, लोकतंत्र के कोने-कोने में, अंग-अंग में
जो भ्रष्टाचार फैला हुआ है, फल-फूल रहा है
वह कितना संवैधानिक है !!

Monday, August 22, 2011

... देख बाहर तू निकल, मैं धूप में भी खिल रहा !!

किसी ने चाल बदल ली, किसी ने बोली बदल ली
हुआ शातिर वो इतना कि उसने सूरत बदल ली !
...
आज हाकिम के बंदे-अन्ना के दर, है ईमान का रोजा
कल बेईमान-गुनहगारों के घर, होगी सुलगती होली !
...
अब कोई आकर पूंछ न बैठे, हाल-ए-वतन मुझसे 'उदय'
उफ़ ! भ्रष्टतंत्र को देख-देख के, अब गूंगा रहा नहीं जाता !
...
जुल्म हम सहते रहें, बस ललकारना गुनाह है
भ्रष्टाचारियों के पास, आज पैंतरे हजार हैं !!
...
दो-चार लोगों को, मौक़ा मिला है आज फिर
खुद जंग लड़ सकते नहीं, उंगली उठाते हैं फिरे !
...
लुटेरों के बीच रहते रहते, लुटेरा बनने का मन हो गया
हिस्से-बंटवारे की चाह में, खुद लुटने का भय खो गया !
...
न जाने कब तलक, तेरी यादों के साये में, मेरी ये शाम गुजरेगी
सच ! तेरी यादें न होंगी, न जाने कैसे मुझे, फिर नींद आयेगी !!
...
सच ! तू शीत लहरों में भी, बैठ कर मुरझा रही
देख बाहर तू निकल, मैं धूप में भी खिल रहा !!

आन्दोलन के आगे-पीछे / सुनहरा अवसर !

जो लोग यह कहते हैं, कह रहे हैं
कहते फिर रहे हैं
कि -
भ्रष्टाचार विरोधी 'अन्ना आन्दोलन' के पीछे
आर एस एस
भा पा
कार्पोरेट जगत
विदेशियों
विदेशी फंड
और
जाने किस किस का, हाँथ है !

आन्दोलन के अगुवा
इन सब आरोपों का खुल्लम-खुल्ला
विरोध-प्रतिरोध कर रहे हैं
फिर भी, चलो हम मान लेते हैं
कि -
होगा, जरुर होगा
किसी किसी का हाँथ, इनके पीछे !

पर
आप, आपके पास तो सुनहरा अवसर है
इनके पीछे नहीं, इनके सांथ होने, आगे होने का
यदि -
आप, भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं
देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करना चाहते हैं
फिर
क्यों, आप आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हुए हैं !

सीधे-सीधे, सीधे तौर पर, सामने आइये
आरोप-प्रत्यारोप छोड़कर
आन्दोलन के सांथ हो जाइये
ले लीजिये, सारा का सारा क्रेडिट
जन लोकपाल बिल पारित, सशक्त बिल घोषित कर !
आप, आपके पास
सुनहरा अवसर है, पीछे होकर, सांथ होने, आगे होने का
कहिये ...
क्यों, किसलिए ... मौन हो ... खामोश हो ... किस मंथन में हो !!

Sunday, August 21, 2011

अनर्गल व्यानबाजी !

अब क्या कहें, किससे कहें
कुछ लोग हैं
जो कुछ का कुछ अलाप रहे हैं
कोई हैं जो -
जाति
धर्म
स्त्री
पुरुष
दलित
सवर्ण ...
के नाम पर गतिरोध पैदा करने में लगे हैं !

तो कोई हैं जो -
प्रधानमंत्री
सांसद
संसद
संसदीय प्रणाली ...
के नाम पर अनर्गल व्यानबाजी में लगे हैं !

तो कोई हैं जो -
न्याय
न्यायालय
न्यायपालिका
न्यायाधिपति
उच्च -
सर्वोच्च न्यायालय ...
के नाम पर गतिरोध डालने के भर्सक प्रयास में हैं !

क्या है, ये क्या हो रहा है, देश में, लोकतंत्र में
अरे भाई, मुद्दा भ्रष्टाचार का है
फिर
भ्रष्टाचारी भले चाहे जो हो
उसे दंड मिलना चाहिए !
कोई भी व्यक्ति, व्यक्तित्व, क़ानून से ऊपर नहीं हो सकता !

जब कल कोई सांसद ह्त्या करेगा !
जब कल कोई न्यायाधीश ह्त्या करेगा !
जब कल कोई प्रधानमंत्री ह्त्या करेगा !
तब
क्या उस हत्यारे को छोड़ दोगे !
शायद, नहीं !!
फिर, कोई भी भ्रष्ट, भ्रष्टाचार में लिप्त, भ्रष्टाचारी
भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून से ऊपर कैंसे हो सकता है !!!

भ्रष्ट बुद्धिजीवी !

आज अपने देश में, लोकतंत्र में
बहुत से बुद्धिजीवी -
लेखक
पत्रकार
विश्लेषक
समीक्षक
आलोचक
समालोचक
जिन्हें, न सिर्फ अन्ना
वरन
उनका भ्रष्टाचार विरोधी जन आन्दोलन
खटक रहा है !
उफ़ ! इसके पीछे उनका -
मकसद
लालसा
स्वार्थ
अभिलाषा
जिज्ञासा
कामना
भले चाहे जो भी हो
पर
वे आज भी, अभी भी
आन्दोलन की सकारात्मकता को छोड़कर
उसके पीछे
आई मीन, आन्दोलन के पीछे
हाँथ धोकर पड़े हैं
उफ़ ! ये कैंसे बुद्धिजीवी हैं, मेरे देश के !
जिन्हें
भ्रष्टाचार -
और भ्रष्टाचारी दिखाई नहीं देते !!

छोटा-बड़ा !

होता है अक्सर
कभी कभी कुछ लोग
देखने में बहुत बड़े दिखते हैं
पर
जब हम उन्हें करीब से -
देखते हैं
समझते हैं
जानते हैं
पहचानते हैं
तब हमें यह एहसास हो पाता है
कि -
वे उतने बड़े नहीं हैं
जितने बड़े हमें दिखाई देते हैं !
क्यों, आखिर क्यों
ऐसा होता है !
क्यों हम धोखा खा जाते हैं
शायद, इसलिए, कि -
यह दुनिया चका-चौंध की नगरी है
जो
अपने आप को चका-चौंध में
खुद को हिट कर लेता है
वह
भले छोटा सही
पर
दिखाई देता है अक्सर हमें बड़ा !!

इंकलाबी चाहिए ...

बन गए हैं आज हम, आग के शोले 'उदय'
ये खबर, हर सख्त से भी सख्त इंसा तक पहुँचनी चाहिए !!

बात अब नहीं रह गई, तेरे-मेरे घर की 'उदय'
चंहू ओर मंजर हुआ है खौफ का, सिस्टम बदलना चाहिए !!

लड़ने को तो लड़ ही लेंगे, देश के गद्दारों-मौक़ापरस्तों से
पर आज भ्रष्ट-मंसूबों की होली जलनी चाहिए !!

कर रहे जो फक्र खुद पर, बैठ कांच के महलों में रोज
आज उनके नापाक इरादे चकना-चूर होने चाहिए !!

हो रहा है नाज जिनको, अपनी झूठी-सच्ची जीत पर
आज उनकी सूरतें-सीरतें बदलनी चाहिए !!

कैंसे करें अब गर्व हम, अपने ही लोगों पर 'उदय'
जो बन गए रक्षक से भक्षक, उन्हें सबक मिलना चाहिए !!

बद से बदतर हुए, हालात मेरे मुल्क के
आज मेरे मुल्क में, एक नई इंकलाबी चाहिए !!

जिन्हें गुमां हुआ है अपनी सख्त दीवारों-खम्बों पर 'उदय'
आज उसी हवेली की बुनियाद हिलनी चाहिए !!

Saturday, August 20, 2011

भ्रष्ट सिस्टम !!

भाई साहब,
मैं कोई जन्मजात भ्रष्टाचारी नहीं हूँ !
और न ही -
मेरा कोई दूसरा सांथी भी भ्रष्टाचारी है !
वो तो हमारा भ्रष्ट सिस्टम है
जो हमें, भ्रष्टाचार करने के लिए
समय समय पर
कदम-दर-कदम
उकसाता, डराता, भड़काता है !

गर, कुछ कर सकते हो
बदल सकते हो, तो बदल डालो
सड़े,
गले,
दीमक लगे,
फफूंद लगे
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचारी सिस्टम को !

वर्ना, हो-हल्ला, चिल्लम-चिल्ली, का कोई
कहीं कोई औचित्य नहीं है !
आओ, आगे आओ, लगाओ, सब मिलकर
दम-ख़म !
किसी एक, दो, तीन -
के बल-बूते की बात नहीं है !
तुमको, हमको, सब को, हम सब को
आना पडेगा
भिड़ना पडेगा
लड़ना पडेगा
इस भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचारी सिस्टम से !

जब तक, आप, हम, सब
नहीं आ जाते, नहीं भिड़ जाते
इस भ्रष्ट सिस्टम से !
तब तक -
भ्रष्टाचारी सिस्टम की !
भ्रष्टाचारियों की !
तुम्हारी, हमारी, हम सब की, जय हो !!

उफ़ ! ये जन लोकपाल !!

भाई साहब
हम आपकी, 'आई मीन' जनता की
हरेक बात, मानने को तैयार हैं
सिवाय
'जन लोकपाल' की मांग के
कुछ तो समझो, समझने की कोशिश करो
हमारी भी मजबूरी !

सिर्फ मुद्दा 'जन लोकपाल' का नहीं है
अन्ना का है !
आप तो जानते ही हो कि -
अन्ना -
कितना अड़ियल 'टाईप' का आदमी है
किसी की सुनता ही नहीं है
अड़ जाता है, तो बस अड़ जाता है !

अगर
अन्ना की ख्वाहिश
सिर्फ 'जन लोकपाल' ही होती, तो
शायद, हम, मान भी जाते
पर
उसके इरादे कुछ और ही हैं
'सांई' जाने,
क्या-क्या मंसूबे हैं उसके !

पर, हमें तो सिर्फ इतना पता है
कि -
अगर, हमने, उसकी एक बात मान ली
तो वह धीरे-धीरे,
अपनी सारी बातें मनवा कर
हमें सड़क पर ला कर ही दम लेगा !

बहुत, बहुत ही ज्यादा
खतरनाक इरादे हैं उसके !
राजनैतिक सिस्टम
नहीं, हमारे राजनैतिक सिस्टम को
वह ध्वस्त कर के ही दम लेगा !

वह हमें, हममें से बहुतों को
जेल में डलवा के -
तो बहुतों को सड़क पे, लाकर ही दम लेगा
अब बताओ, आप ही कुछ बताओ
कैसे, कैसे मान लें, हम उसकी मांग !

आखिर हम भी तो सरकार हैं
भले ही सत्ता के पक्ष, या विपक्ष में हैं
पर, हैं तो सब, हम भाई-भाई
हम चुने हुए, जीते हुए, जन प्रतिनिधी हैं
उफ़ ! ये जन लोकपाल !!

Friday, August 19, 2011

... डरे हो, या डरा रहे हो !!

पल-पल ख़्वाब उड़ते रहे बुलबुलों की तरह
तेरे आगोश में सिमटते ही, फना हो गए !!
...
गर चाहें भी तो अब खुद पे यकीं नहीं होता
कोई बेइंतेहा चाहता रहा, हम खामोश रहे !
...
नहीं मुमकिन छिपा पाना खुदी को आईने में
कभी आँखें, कभी साँसें, हकीकत बोलती हैं !

...
भ्रष्ट-घपलेबाज कर रहे, क़ानून की ऐंसी की तैंसी
लग रहे इल्जाम उन पर, जिनकी दम नहीं ऐसी !
...
ये कैसा मुल्क है, और हैं सियासतें कैसी
उफ़ ! गरीबों की हो रही, ऐंसी की तैंसी !!
...
क्या खूब बयां किये हैं, किसी ने जज्बातों को
सच ! हम हार भी रहे हैं और जीत भी रहे हैं !!
...
क्या खूब अंदाज है देखने का
उफ़ ! डरे हो, या डरा रहे हो !!
...
सच ! न कद, न काठी, मेरी शिखर-सी है
मैं अन्ना हूँ, सड़क का आदमी हूँ !!

एक नई मंजिल की ओर !!

कभी कभी
चलते चलते, राह में
हम
सहम से जाते हैं
कुछ देखकर, कुछ भांप कर
ज़रा-ज़रा सी आहट पर !

कभी कुछ होता है -
कभी कुछ नहीं भी होता है !

पर
जब हम सहम जाते हैं
तब
न चाहकर भी, कुछ पल को
हम
सहमे ही रहते हैं !

होता है अक्सर
न चाहते हुए भी, न चाहकर भी !
फिर
चलते हैं, चल पड़ते हैं,
हम
आगे की ओर !

थोड़ा थोड़ा सहमे हुए ही, पर
चलते चलते
मिलता है, फिर, धीरे धीरे
हौसला हमें
आगे बढ़ने के लिए,
तेज चलने के लिए !

फिर
ठहरते नहीं, सहमते नहीं
चलते, चले चलते हैं
हम
नए हौसले, नए जज्बे,
नए कदमों संग
धीरे धीरे ...
एक नई मंजिल की ओर !!

Thursday, August 18, 2011

सच ! कहाँ रात, कहाँ दिन है !!

अब न तो सब, न रात की बात रही
बस दो घड़ी की मुलाक़ात बाकी है !
...
न कर फक्र तू खुद पर, चंद लाइनें-किताबें लिख कर
किसी की सादगी देखो, ज़रा अहम भी नहीं दिखता !
...
चलो जाने भी दो, अब छोड़ दो राहें
बातें मोहब्बत की, हमें भाती नहीं हैं !
...
न जाने क्यों तुम मेरे दिल को भाने लगे
उफ़ ! हुआ सौदा तो सिर्फ जिस्म का ही था !
...
हैं ऐंसे बहुत से लोग, जो फना होने के डर से, घर से बाहर नहीं आते
किसी की सादगी देखो जो तेरी-मेरी खातिर फना होने को आतुर है !
...
क्या करें मजबूर हैं, सत्ता के नशे में चूर हैं
लड़ने को लड़ लेते हैं, पर सब भाई-भाई हैं !
...
क्या अच्छा - क्या बुरा, कौन समझे और किस-किस को समझाए
उफ़ ! सत्ता की चाह में लोग मूकबधिर बने बैठे हैं, हम समझते हैं !!
...
आँखों ने और दिल ने, मोहब्बत की थी तुझसे 'उदय'
दिल धड़कता रहा, आँखें देखती रहीं, जुबां खामोश रही !
...
ये दीवानगी की धुन है 'उदय'
सच ! कहाँ रात, कहाँ दिन है !!

उफ़ ! ये हवा महल !!

हवा महल
हमारे देश में ...
शान, मान, आन, का प्रतीक है
सच ! वहां होने थे, सच्चे-अच्छे लोग !!
किन्तु
वहां है जमावड़ा
नंगे, लुच्चे, चोर, उचक्के
गुंडे, बदमाश, माफिया, अपराधी
हत्यारे, लुटेरे, घोटालेबाज-भ्रष्टों का !!

उफ़ ! ये हवा महल !!
क्या हो गया है
क्यों हो गया है
कैसे हो गया है
चहूँ ओर
आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, दांए, बांए
हवा महल में
सिर्फ, सिर्फ, सिर्फ ...
स्वार्थी, कपटी, लोगों का ही जमावड़ा है !!

हे राम ! क्या सोचा था हमने !!
और ये क्या से क्या हो गया है
हमारे देश का !
ये कैसा अनोखा-अद्भुत हवा महल है !!
जहां लोग
सिर्फ अपने, अपने लिए, गुणा-भाग कर रहे हैं
जिन्हें जनमानस
कि -
कोई, कतई चिंता नहीं है
उफ़ ! ये हवा महल !!

Wednesday, August 17, 2011

ये कैसा तंत्र है, कैंसे लोग हैं !!

एक तरफ
एक ईमानदार
तो दूजी तरफ बेईमान हैं !
एक तरफ
कोई भूखा-प्यासा
तो दूजी तरफ भरे पेट हैं !!

फिर भी, फर्क है
दोनों तरफ
कोई अपने लिए !
तो कोई अपनों के लिए
लड़ रहा है !!

कुछ लोग
खुले हवा महल में
आपस में, अपने अपने लिए
लड़-भिड़ रहे हैं !
तो कोई
खुले आसमां तले
अपनों के लिए कुर्बान है !!

ये कैसा तंत्र है ?
कैंसे लोग हैं ?
कैंसी सोच हैं ?
कैंसी विचारधाराएँ हैं ?
कैंसी धारणाएं हैं ?
कैंसी जिज्ञासाएं हैं ?
कैंसी मंशाएं हैं ?
कैंसी लालसाएं हैं ?
कैंसी नीतियाँ हैं ?
कौन समझे, कौन समझाए !
ये कैसा तंत्र है, कैंसे लोग हैं !!

... जज्बात तूफानी हैं !!

किसी ने बेशुमार दौलतें इकट्ठा कर रक्खी हैं
'रब' जाने, पीठ पे बाँध ले जाना मुमकिन हो !
...
तेरी बेफवाई का अब अफ़सोस नहीं है मुझको
सच ! तू वफ़ा भी करती, तो कहाँ तक करती !
...
मैं तो दीवानगी की धुन में तुझ तक चला आया था
उफ़ ! कहाँ थी खबर मुझको, कि तू एक सौदाई है !!
...
कोई किसी को बूढा समझ, खुद को जबां न समझ बैठे
अन्ना हजारे : उम्र चौहत्तर सही, पर जज्बात तूफानी हैं !!

Wednesday, August 10, 2011

... सांथ चलता है, बस अकेलापन !!

न दोस्ती, न वफ़ा, न बेवफाई का सबब
उफ़ ! सांथ चलता है, बस अकेलापन !!

...
बड़ी जालिम हुई है मोहब्बत मेरी
उफ़ ! हर घड़ी, बड़े अदब से बात करती है !!
...
यही आलम, यही फ़साने हुए हैं मोहब्बत के
उफ़ ! किसी को जां भी दो, तो सलीके से दो !
...
सच ! किसी की सादगी की इन्तेहा तो देखिये
वो हमेशा हाँ ही कहती है, हमें न ही लगता है !

Saturday, August 6, 2011

उजाले की ओर ...

लम्बे ... घोर अंधेरे के बाद
चलते चलते, राह में
जब
नजर आती है, हमें
एक उम्मीद की किरण !

किरण के -
नजर आते ही, नजर आने पर ही
शुरू होता है
पुन: एक नया सफ़र !

घोर अंधेरे को चीरते हुए
इस पार से, उस पार की ओर
उम्मीदों
आशाओं
जिज्ञासाओं के संग !

नए उत्साह
नए कदमों
नई ऊर्जा के संग !!

हताशाओं
मायुशियों
को पीछे छोड़कर !!

सिर्फ, सिर्फ आगे की ओर ...
कदम-दर-कदम
छोटे-छोटे कदमों के संग
हम बढ़ते हैं
अंधकार से, उजाले की ओर !!