Friday, July 29, 2011

बेचैनी ...

सच ! मन नहीं लगता
जब
मन उदास होता है
एक अजीब-सी बेचैनी होती है
सांथ सांथ !

हर घड़ी, हर पल
सन्नाटा-सा छाया होता है
हमारे आस-पास
हम चाहते हैं, बार बार चाहते हैं
दूर हो बेचैनी, हमसे !

पर, पुराने हर प्रयास की तरह
नया प्रयास भी
असफल-सा
लगता है !
हम घिरे होते हैं, घिर चुके होते हैं
बेचैनी से !

हम, पल-पल उम्मीदों के सांथ
न चाहकर, न चाहते हुए
वक्त के संग लड़ रहे होते हैं
जी रहे होते हैं !
हर घड़ी, हर पल, बेचैनी में !!

Thursday, July 28, 2011

घुप्प अंधेरा !

किसी सुनसान, सन्नाटे भरे
इलाके से, अकेले
जब गुजरते थे, हम
बचपन में !
तब
दिल, दिमाग, हाँथ, पैर
सन्न से हो जाते थे
गुजरते गुजरते
गुजर जाने तक
कभी कभी तो
गुजर जाने के बाद भी
कुछ दूर तक, सन्नाटा-सा
छाया रहता था
पर, तब से अब तक
हमने, कभी, सोचा नहीं था
डरे भी नहीं थे
सहमे भी नहीं थे
चल रहे थे
चलते चल रहे थे
बस चले-चल रहे थे
कि -
अचानक, कल, फिर
एक खबर सुनकर, चहूँ ओर
सन्नाटा-सा छा गया
सुन, सुनते ही
छा गया घुप्प अंधेरा
दिल और दिमाग पर ... !!

Wednesday, July 27, 2011

परेशां हालात !

परेशानियां, मुश्किलें, तकलीफें
कभी उमड़ पड़ती हैं
कभी ठहरी होती हैं
शब्द, भाव, विचार, की तरह
आसमां में
जमीं में
फिजाओं में
मन के किसी कोने में !
फिर किसी दिन अचानक ही
किसी तूफ़ान
किसी बवंडर
किसी भूकंप
किसी जलजले
किसी सुनामी, की तरह
उमड़ पड़ती हैं
और हम
असहाय उनके सामने खड़े होते हैं
घिरे होते हैं
खुद को देखते, टटोलते
मुश्किल, परेशां हालात में !!

Tuesday, July 26, 2011

दिग्गी हो या हो पिग्गी !!

चिल्ले-पिल्ले, आंडू-पांडू
ढोल-नगाडे, डफ़ली-बाजा
पीटम-पीट, धमा-चौकडी
अकड रहा है, जकड रहा है
बेमतलब का भिड रहा है
मारो मारो, पकडो पकडो
दे दो एक पटकनी उसको
दिग्गी हो या हो पिग्गी !
धोबी पछाड दिखाओ उसको
उठा-उठा के पटको उसको
है इसकी दुम टेडी की टेडी
आदत से मजबूर हुआ है
भौं भौं करता घूम रहा है
अच्छा-बुरा सब भूल गया है
अकड रहा है, जकड रहा है
बेमतलब का भिड रहा है
मारो मारो, पकडो पकडो
दे दो एक पटकनी उसको
दिग्गी हो या हो पिग्गी !!

ढूँढता हूँ ...

सच ! मैं बन गया हूँ
मील का पत्थर
कोई राहगीर ढूँढता हूँ !

सजा लिए हैं, अरमां
दिलों
में

कोई दिलदार ढूँढता हूँ !

लुट रहा है, लूट रहे हैं
देश, भ्रष्टाचारी
कोई सशक्त क़ानून ढूँढता हूँ !

कब्रिस्तान न बन जाए
जमीं मेरी
अलख जगाने
सिर पे कफ़न बांध घूमता हूँ !

हूँ मैं तो खडा, बन इंकलाबी
सफ़र में
गांधी, सुभाष, आजाद, ढूँढता हूँ !!

Monday, July 25, 2011

बंदरबांट !

कोई
चीख चीख के चिल्ला रहा है
कि -
सिर्फ मैं अकेला दोषी नहीं
और भी हैं
और भी से, मेरा मतलब
हमारे मुखिया से है
वह जानता था, सब थी खबर उसको
सिर्फ खबर ही नहीं
इस बंदरबांट में, उसका भी हिस्सा था
हमने दिया है, उसने लिया है
फिर कैसे
सिर्फ मैं अकेला जिम्मेदार हूँ
इतने बड़े घोटाले, भ्रष्टाचार का
वो मुखिया है
तो क्या बच जाएगा, और मैं छोटा हूँ तो
क्या जेल चला जाऊंगा
ऐसा नहीं होगा, कतई नहीं
मुझे बाहर निकालो, नहीं तो
तुम सब की, खैर नहीं
मैं तो चीखूंगा-चिल्लाऊंगा
बताऊंगा सब को कि -
सिर्फ मैं नहीं, मेरा मुखिया, और सारे मुखौटे
सब के सब, जिम्मेदार हैं
सब का, हाँथ है, दिल है, दिमाग है
इस महा घोटाले में ... जय हो ... !!

मर्यादा ...

सच ! होने को तो था
मैं चोर ही
लोग कह भी देते थे, मुझे
चोर-उचक्का !

पर होते होते, नेता हो गया
अरे भाई, मैं नेता हो गया
क्या देश है, कितना अच्छा तंत्र है
लोकतंत्र है !

जब हम चाहते हैं, जैसा जैसा चाहते हैं
वैसा वैसा कर लेते हैं
तोड़ लेते हैं, मरोड़ लेते हैं
अपनी अपनी जरुरत पर
जरूरतों के अनुसार !

पर, जब कोई
हमारा अहित चाहता है
तब, हम
अड़ जाते हैं, लड़ जाते हैं, भिड़ जाते हैं !

कह देते हैं, कहने लगते हैं
कि -
यह लोकतंत्र की -
मर्यादा के सख्त खिलाफ है !!

असली हिन्दुस्तान !

दादी हिन्दू
तो
दादा मुसलमान थे
माँ क्रिश्चयन
तो
पिता हिन्दू-मुस्लिम की संतान थे
मेरी रग रग में
सभी
धर्मों का खून दौड़ रहा है
मेरे संस्कार
कभी
मंदिर
कभी मस्जिद
कभी चर्च
हर कहीं झलकते हैं
घर में ही ईद की खुशियाँ
क्रिसमस की धूम
और पूजा में घंटियाँ बजती हैं
गौर से देखो
मुझे

मैं हिन्दू, मुसलमान हूँ
सच्चाई तो यही है
कि
-
मैं ही असली हिन्दुस्तान हूँ !!

Sunday, July 24, 2011

टुडेज लव : शायद वक्त को यही मंजूर था !

लगभग एक सप्ताह बाद राज अपने गाँव से लौट कर शहर आया तथा प्रिया से मिला, मिलते ही उसने बिना संकोच किये बेझिझक पिछले एक सप्ताह की आपबीती सुनाई, राज की बातें सुनकर प्रिया की आँखे डबडबा गईं, कुछ देर के सन्नाटे के बाद प्रिया ने बोलना शुरू किया ...
... राज मुझे माफ़ कर दो, शायद यह हमारी आखरी मुलाक़ात है कल तक मैं तुमसे मिलते रही बेहिचक - बेझिझक, शायद इसलिए कि हम दोनों एक दूसरे से बेइंतेहा प्यार करते थे, ऐसा नहीं है कि आज हमारे बीच प्यार अचानक समाप्त हो गया, प्यार समाप्त हुआ या नहीं यह तो मैं नहीं जानती पर यह सच है कि यह हमारी आखरी मुलाक़ात है शायद हम आज के बाद बिलकुल भी न मिलें . तुम जानते हो हमारे न मिलने की बजह, मैं तुमसे प्यार करती हूँ शायद आगे भी करती रहूँ या फिर धीरे धीरे मेरा प्यार ख़त्म हो जाए, ख़त्म हो जाए तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि अब आज के बाद हमारी जिन्दगी में एक दूसरे की कोई जगह नहीं रही. कल तक की बात और थी हम मिलते रहे अपनी अपनी सहुलियत और जरुरत के अनुसार, पर आज वो समय नहीं रहा, जैसा आज से एक सप्ताह पहले तक था जब तुम गाँव गए थे मैं खुद तुमको स्टेशन तक छोड़ने गई थी पर कल जब तुम गाँव से वापस आए हो तब अकेले नहीं आए हो, मेरा राज नहीं आया है जिसे मैंने स्वयं स्टेशन जाकर विदा किया था, वह राज चला गया मेरे जीवन से कहीं दूर चला गया, आज जो राज मेरे सामने खडा है वह मेरा नहीं वरन मीना का राज है, जिस पल तुम्हारी शादी हुई मीना के सांथ ठीक उसी पल से तुम प्रिया के राज नहीं रहे, आई मीन आज से तुम्हारी यह प्रिया अकेली है, मैं तुम्हें दोष नहीं देती और न ही तुम्हें कसूरवार ठहराती हूँ, शायद तुम्हारी जगह कोई और होता तो वह भी शायद वही करता जो तुमने किया या यूं कहूं मैं भी होती तो शायद यही करती, यदि तुम्हारी जगह मेरे पिता भी जीवन की अंतिम साँसे गिन रहे होते, उन्हें भी अचानक हार्ट अटैक आया होता तो शायद मैं भी उनका दिल व मान रखने के लिए जहां वो कहते वहां शादी कर लेती. तुमसे कोई गलती नहीं हुई है आई मीन तुम्हारी कोई गलती नहीं है तुमने जो किया वह उन हालात में जायज था शायद वक्त को यही मंजूर था, तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को नए जीवन की शुभकामनाएं ...
... प्रिया अपनी बात ख़त्म कर अपने आंसू पौंछते पौंछते चली गई जाते जाते उसने राज को पीछे मुड़कर भी नहीं देखा, राज खामोश खडा देखता रहा !!

Saturday, July 23, 2011

किसी ने दिल से नहीं, दिमाग से बेवफाई की है !

सलीके के लिबास पहन के निकला करो घर से
दिल बच्चा सही लेकिन मेरी आँखें सियानी हैं !
...
नहीं गुनाह किया हमने, सिर्फ चाहा है तुम्हें
आँखें बोलते रहीं पर जुबां खामोश ही रही !
...
तेरी मोहब्बत में कर तो लेते बगावत सारे जहां से हम
जब दौलतें ही न होतीं, तब फुटपात पे कैसे जीते हम !
...
न कहीं हुक्म हैं, और न ही हुक्मरान हैं
उफ़ ! सब के सब सत्ता के कद्रदान हैं !!
...
कोई जाके, क्यों समझाता नहीं हुक्मरानों को
कब तक, कोई रोक पायेगा, युवा तूफानों को !
...
सलाखें घोंच घोंच के, धड़कनें टटोल रहे हैं लोग
कहीं ज़िंदा रह न जाऊं, तसल्ली कर रहे हैं लोग !
...
कभी रिंग, कभी बाईब्रेट, तो कभी साइलेंट में
सच ! होती खूब अदाएं हैं, तेरी हरेक मोड में !
...
चहूँ ओर आम आदमी, आम आदमी का हल्ला बोल है
लोकतंत्र के सभी खानों में, आम आदमी गोलमोल है !
...
आज तो दिल गुमसुम, और दिमाग सन्नाटे में है 'उदय'
किसी ने दिल से नहीं, दिमाग से बेवफाई की है !!

छैल-छबीले !

ये दुनिया रंग-रंगीली है
तो हम भी छैल-छबीले हैं
छोटे-मोटे करतब तो यूं
बांये हाँथ से दिखलाते
जब दांया हांथ लगाते हैं
तब जादू, सर्कस, न जाने
क्या क्या खेल दिखाते हैं
खेल दिखाते, करतब करते
नांचते-गाते, धूम मचाते
सत्ता के गलियारों तक में
जाते-आते, उठते-बैठते
खरीदते, बेचते, गठबंधन
भ्रष्ट, घोटाले, घपलेबाजी
हम जो चाहें कर जाते हैं
ये दुनिया रंग-रंगीली है
तो हम भी छैल-छबीले हैं !!

Friday, July 22, 2011

गुनाहों की सजा !

एक महानगर के धन्ना सेठ का विगत - माह से स्वास्थ्य अत्यंत खराब चल रहा था धन्ना सेठ होने के नाते इलाज-पानी में कोई कमी नहीं थी अच्छे-से-अच्छे डाक्टर से इलाज करवाया जा रहा था किन्तु सेठ जी का स्वास्थ्य सुधरने की जगह बिगड़ता ही जा रहा था. अच्छे-से-अच्छे इलाज के बाद भी स्वास्थ्य ठीक होते देख परिवार के सभी सदस्य बहुत ही चिंतित होने लगे थे, चिंता की मुख्य बजह यह नहीं थी कि सेठ जी के पैर का मामूली सा चोट का निशान धीरे धीरे बढ़ते जा रहा था वरन चिंता की मुख्य बजह यह थी कि सेठ जी का पैर धीरे धीरे सड़ने गलने लगा था . सेठ जी की अस्वस्थ्यता के कारण सारे घर में मायूसी सी छाने लगी थी घर का एक एक सदस्य अत्यंत चिंतित था, घर के सदस्यों की बढ़ती चिंता को देख देख कर सेठ जी भी चिंतित होने लगे थे. परिवार के सदस्यों के माथे पर दिनों-दिन चिंता की लकीरें बढ़ता देख सेठ जी से रहा नहीं गया और उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों को इकट्ठा कर अपनी आप बीती सुनाई, सेठ जी ने कहा - मुझे माफ़ कर दो मेरे बच्चों, मैंने अपने जीवन की एक सच्चाई तुम सभी से छिपाई है वो सच्चाई यह है कि हम खानदानी सेठ-साहूकार नहीं हैं, जीवन के शुरुवाती सफ़र में मैं एक चोर था तथा चोरी-चपाटी कर अपना जीवन-यापन करता था, एक दिन मैंने एक बहुत बड़ी चोरी की थी जिसमे ढेर सारे सोने-चांदी के जेवरात नगदी रकम मेरे हाँथ लगी थी, उस चोरी के बाद मैं शहर में आकर बस गया तथा यहीं पर व्यवसाय करने लगा धीरे धीरे हम इस मुकाम पर पहुँच गए कि आज हम नगर के सबसे बड़े सेठ हैं, चोरी-चपाटी तो मेरे छोटे-मोटे गुनाह हैं किन्तु मेरा सबसे बड़ा गुनाह यह है कि उसी बड़ी चोरी में मुझे "माँ दुर्गा" की सोने की मूर्ति भी हाँथ लगी थी जिसे मैंने एक सोनार के पास जाकर आँखों के सामने बैठकर गलवा कर अपने पास रख लिया था जो आज भी तिजोरी में सोने के डिल्ले के रूप में रखी है, मेरा शरीर धीरे धीरे गलने लगा है शायद यह मेरे उसी गुनाह की सजा है जो मैं अपनी आँखों से शरीर को गलता देख रहा हूँ, काश ! मैंने वह मूर्ति गलवाई होती तो शायद आज मेरी यह हालत होती, मेरे बच्चों जाओ जाकर उस सोने के डिल्ले को उठाकर उसमे उतने ही बजन का सोना और मिला कर एक नई "माँ दुर्गा" की मूर्ति बनवा कर किसी दुर्गा मंदिर में चढ़ा दो ताकि मेरे गुनाहों की सजा तुम्हें भोगना पड़े तथा तुम लोग मेरी चिंता करना छोड़ दो, मेरी बीमारी कुछ और नहीं मेरे गुनाहों की सजा है !!

रोटी ...

भूख न होती, रोटी होती
तुम भी होते, हम भी होते
टुकड़ा टुकड़ा करते रोटी
तुम भी खाते, हम भी खाते !

भूख होती, रोटी न होती
तुम भी होते, हम भी होते
तरश्ते, बिलखते, सिकुड़ते
तुम भी रोते, हम भी रोते !

भूख होती, रोटी भी होती
तुम भी होते, हम भी होते
रोटी रोटी, टुकड़ा टुकड़ा
तुम भी लड़ते, हम भी लड़ते !!

Thursday, July 21, 2011

राजदुलारा बच्चा !

कल रात, मेरे अंतर्मन ने
मेरे सामने आकर मुझसे कहा - सुनते हैं
लोग बहुत, बहुत अच्छा लिख रहे हैं
तुम क्यों नहीं लिखते, अच्छा !
मैं थोड़ा घवाराया, सम्भाला खुद को
फिर धीरे से बोला - लिख तो रहा हूँ !
वह भड़क गया, और डांटते हुए बोला -
क्या ख़ाक लिख रहे हो !!
अगर नहीं लिख सकते अच्छा
तो बंद कर दो लिखना-लिखाना
फिजूल में समय खराब कर रहे हो
खुद का, और भोले-भाले पाठकों का
तुम लिखते भी हो, तो कुछ भी लिख देते हो
खाली-पीली, अगड़म-बगड़म, टाईम-खोटी
क्या तुमको शर्म नहीं आती ?
क्या कहता, क्या कहता उससे
था तो मन मेरा ही वो, और गुस्सा भी जायज था
कान पकड़ कर मैंने बोला - माफ़ करो, मुझे माफ़ करो
कल से कोशिश करूंगा मैं भी, कुछ अच्छा लिख लेने की
जो अच्छा हो, न कच्चा हो, कोमल-कोमल
सच्चा-सच्चा, प्यारा-प्यारा, राजदुलारा बच्चा हो !!

पोस्ट मार्डम !

मैं, सिर्फ एक लेखक, नहीं हूँ
वरन एक पाठक भी हूँ
लिखते लिखते
अक्सर
कुछ लोगों को पढ़ता भी हूँ
पढ़ते पढ़ते, खो सा जाता हूँ
कुछ अद्भुत से ख्यालों में
सोचता हूँ, ख्यालों में, पढ़ते पढ़ते
काश ! मेरे लेखन पर
कोई लिखे, कोई क्यों, बहुत सारे लिखें
लिखें, मैंने क्या लिखा, क्यों लिखा
और क्या-क्या भाव छिपे हैं मेरे लेखन में !
अक्सर
पढ़ता हूँ मैं, लोग लिखते हैं
समीक्षा, आलोचना, समालोचना
दूजों के लेखन पर
काश ! मैं भी, किसी दिन, किसी के लिए
ख़ास हो जाऊं !
ख़ास भी इतना कि -
न सिर्फ कुछ-कुछ, वरन बहुत कुछ
लिखा जाए, मेरे लेखन पर !
काश ! ऐसा हो
मैं भी लिखूं, कुछ इतना धांसू
कि -
एक, दो, तीन, नहीं, बहुतों के द्वारा
मेरे लेखन का, मेरे जीते-जी, पोस्ट मार्डम हो
काश ! ऐंसा हो, बिलकुल ऐंसा ही हो !!

Wednesday, July 20, 2011

जो दिल कहता है वह करता चल !

राम एक पच्चीस साल का बेहद मेहनती व संघर्षशील नवयुवक अपने जीवन के बुरे वक्त व तंग हालात से जूझता जूझता, सड़क पर पैदल चलते चलते एक मंदिर की चौखट तक पहुँच कर सीढ़ियों पर ही बैठ गया, सीढ़ियों पर बैठे बैठे अपने बुरे आज व आने वाले कल के बारे में सोचते सोचते उसकी मंदिर की सीढ़ियों पर नींद लग गई ... वह थकी व गहरी नींद में था तब उसके स्वप्न में उसकी बूढ़ी दादी प्रगट हुईं और कहने लगीं - बेटा राम, तू उदास मत हो, मैं जानती हूँ तू बहुत ज्यादा परेशान है तू सदा से ही माता-पिता व परिवार वालों का कहा सुनता-मानता आया है तू परिवार का एक आज्ञाकारी पुत्र है तुझ पर परिवार को सदैव गर्व रहेगा किन्तु मेरी एक सलाह मान और आज से ही तू उस सलाह पर काम करना शुरू कर दे, तेरी सारी परेशानियां व उलझनें धीरे धीरे दूर हो जाएंगी, मेरी सलाह यह है कि तू आज से, आज से क्या अभी से ही "जो दिल कहता है वह करता चल" ... राम अचानक नींद से जागा, खुद को मंदिर की सीढ़ियों पर देख आश्चर्यचकित सा हुआ, शायद कुछ पल को वह भूल-सा गया था कि वह थका-हारा स्वयं चलते चलते वहां तक पहुंचा था, फिर स्वप्न के बारे में सोचने लगा तथा स्वप्न में आई अपनी स्वर्गवासी दादी के बारे में सोचने लगा, सोचते सोचते उसने सीढ़ियों से उठकर अन्दर मंदिर में प्रवेश किया, प्रवेश करते ही वह पुन: आश्चर्यचकित सा हुआ, दर-असल वह माता काली का मंदिर था और उसकी स्वर्गवासी दादी माता काली की एक बहुत बड़ी भक्त थीं, राम इन कुदरती संयोगों के बारे में मंदिर में खडा खडा सोच रहा था तब ही स्वप्न में मिला दादी का उपदेश - "जो दिल कहता है वह करता चल" उसके दिमाग में मंदिर की घंटियों की तरह गूंजने लगा, कुछ देर सोच-विचार के बाद राम ने स्वप्न में मिले उपदेश को ही माता काली व स्वर्गवासी दादी का आदेश मान लिया और माता काली का आशीर्वाद लेकर वह मंदिर से घर चला गया, दूसरे दिन प्रात: काल से ही उसने परिवार के द्वारा मन में संजोये गए सरकारी अफसर बनने के ख़्वाब को भूलते हुए दिल की सुनी और दिल की धड़कनों के अनुसार ही राम ने अपने लेखक बनने के स्वप्न की ओर कदम बढ़ा दिया ... थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के दौर आए और चले गए, राम की लगभग दस सालों की मेहनत ने ही उसे विश्व प्रसिद्ध लेखक बना दिया !!

तुम्हारा आना ही मेरा पुरुष्कार है !

एक युवा लेखक के पास पहुँच कर एक जिज्ञासु पाठक ने कहा - सर मैं आपको एक लम्बे अर्से से पढ़ रहा हूँ आप के लेखन को पढ़ते पढ़ते शरीर में सिहरन सी पैदा हो जाती है, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आपकी लेखनी को पढ़ने से खून खौलने लगता है, ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ आपको ही पढ़ता हूँ आज के समय के ढेरों लेखकों को पढ़ रहा हूँ पर मुझे आपकी कलम में जो आग अर्थात धार व पैनापन पढ़ने को मिलता है शायद वर्त्तमान समय के किसी भी अन्य लेखक में वह आग नजर नहीं आती, सीधे शब्दों में कहूं तो वर्त्तमान समय में मुझे ऐसा कोई लेखक नजर नहीं आता जो आपकी कलम के सामने खडा भी होता हो अर्थात खडा हो सके ... जिज्ञासु पाठक को चुप कराते हुए युवा लेखक ने कहा - ऐसी कोई बात नहीं है आज के समय में भी ऐसे अनेकों लेखक हैं जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं शायद मुझसे कई गुना ज्यादा बेहतर ... नहीं सर, मैं नहीं मान सकता, शायद यह आपका बड़प्पन है जो आप स्वयं को एक छोटा लेखक मान कर चल रहे हैं किन्तु जहां तक मेरा आंकलन है अर्थात एक पाठक के नजरिये से, मुझे आपसे बेहतर कोई और नजर नहीं आता, मुझे बेहद अफसोस होता है जब किसी भी साहित्यिक पुरुष्कार की घोषणा में न तो आपका नाम होता है और न ही आप पुरुष्कृत किये जाते हैं, पता नहीं ऐसा क्यों होता है, यही जानने के लिए मैं आज आपके पास ३०० किलोमीटर की यात्रा तय कर आया हूँ ... अरे, इतने दूर से आए हो, क्या जरुरत थी आने की, फोन कर लेते या चिट्ठी-पत्री भेज कर पूंछ लेते ... ( पैर छूते हुए ) सर आपसे मिलने की जिज्ञासा भी थी इसलिए स्वयं चला आया, सर आपसे मिलकर मैं धन्य हो गया ... ( युवा लेखक ने जिज्ञासु पाठक को गले लगाते हुए कहा ) ये तो तुम्हारा प्रेम है मेरे प्रति जो तुम्हें मेरे पास खींच लाया है, खैर कोई बात नहीं, तुम सिर्फ मुझे ही तल्लीनता से पढ़ते होगे, शायद इसलिए ही तुम्हें मेरे लेखन ने प्रभावित किया है कोशिश करो अन्य लेखकों को पढ़ने की, सचमुच वे मुझसे बेहतर लिखते हैं तब ही तो पुरुष्कृत हो रहे हैं ... सर, प्लीज, मुझे माफ़ करें, मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हो सकता, क्योंकि मैं एक पाठक हूँ और आप एक लेखक हैं, बेहतर, और बेहतर से बेहतर लेखन को एक पाठक ही महसूस कर सकता है मुझे यकीन है कि वर्त्तमान समय के आप सर्वश्रेष्ठ लेखक हैं, पता नहीं आपको पुरुष्कृत क्यों नहीं किया जाता ... सुनो मित्र, श्रेष्ठता व पुरुष्कार की बातें छोडो, वैसे भी लिखने के पीछे पुरुष्कार प्राप्त करना मेरा मकसद कभी नहीं रहा है और आज तुमने इतनी दूर से आकर मुझे स्वमेव पुरुष्कृत कर दिया है, तुम्हारा आना ही मेरा पुरुष्कार है !!

Tuesday, July 19, 2011

मतलब का यार !

बचपन के दो मित्र अचानक मिलने पर ...
राकेश - यार शरद तू आजकल बहुत बड़ा आदमी हो गया है बहुत बड़ी मीडिया कंपनी ज्वाईन कर लिया है, बहुत बहुत बधाई !
शरद - नहीं यार ... मैं अपने टैलेंट के दम पर ऊंचाइयों पर पहुंचा हूँ, देर-सबेर ही सही मेहनत रंग तो लाई ... और सुना तू कैसा है !
राकेश - हाँ यार तू बचपन से ही बहुत मेहनती ... आई मीन टैलेंटेड है, आज तेरे सांथ राम भईय्या नहीं दिख रहे, क्या बात है कहीं ... !
शरद - कहीं ! से तेरा क्या मतलब है !
राकेश - भड़क क्यों रहा है यार, आजकल तू उनके सांथ ही दिखता है अर्थात घूमता-फिरता है इसलिए पूंछ रहा था !
शरद - मैं ! उनके सांथ घूमता-फिरता हूँ या वो मेरे सांथ !!
राकेश - एक ही बात है यार, तू उनके सांथ घूमे या वो तेरे सांथ घूमें !
शरद - एक ही बात कैसे हुई ! ... मैं नहीं, वो मेरे सांथ घूमते हैं आजकल मैं उनको खिलाता-पिलाता हूँ ... वो कहावत भूल गया कि "मक्खी गुड के पास भिनभिनाती है" !
राकेश - अरे हाँ यार ... भूल गया था कि तू "बड़ा आदमी अर्थात गुड" है ... किन्तु मैं राम भईय्या को भी अच्छे से जानता हूँ बहुत स्वाभीमानी इंसान हैं वो खाने-पीने के चक्कर में तो क्या, कोई उन्हें लालच भी देगा तब भी वो किसी के सांथ नहीं हो सकते ... जरुर कोई न कोई वजह होगी या फिर तू बडबोलेपन में कुछ भी बक-बक कर रहा है ... वैसे भी मैं बचपन से तेरी आदत को जानता हूँ !
शरद - क्या मतलब है तेरा, बचपन की आदत से !
राकेश - छोड़ न यार, जाने दे !
शरद - तू कुछ भी अनाप-शनाप बक रहा है, जानता नहीं किस से बात कर रहा है ... शरद मुरारी पांडे से ! आजकल लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं, अब तेरा बचपन का मित्र कोई छोटा-मोटा आदमी नहीं रहा, बहुत बड़ा आदमी बन गया है !
राकेश - हाँ यार ... तू आदमी बड़ा बना या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, पर इतना जरुर जानता हूँ कि राम भईय्या तेरा दिल रखने के लिए तेरे सांथ, वरना .... खैर छोड़, जाने दे ... पर बचपन के सभी संगी-सांथी जानते हैं कि तू मतलब का यार है !!

अनोखा कारोबार ...

बम फूटते हैं, बम फोड़े जाते हैं
कुछ हंसते हैं, कुछ रोते हैं
कुछ तड़फते हैं, कुछ बिलखते हैं
कुछ मर जाते हैं
कुछ अधमरे रह जाते हैं
कुछ पहचाने
तो कुछ गुमनाम जाते हैं !

हर बार, बार बार, बम फोड़े जाते हैं
दहशत-गर्दी, कत्ले-आम का
यह एक अंतर्राष्ट्रीय कारोबार है
कारोबारी, कारीगर, और आम जनमानस
कोई मुनाफे में
तो कोई नुक्सान में है
फला-फूला, एक एकाकी कारोबार है !

नफ़ा-नुक्सान
खौफ-दहशत
कत्ले-आम के बीच
कुछ मर जाते हैं
कुछ मरने से बच जाते हैं
कुछ जीते - जी मर जाते हैं
उफ़ ! यह कैसा, अनोखा कारोबार है !!

Monday, July 18, 2011

कल भी वो खामोश थी, आज भी खामोश है !

सच ! चलो आज फिर खुदी को आजमा लें
मौक़ा हंसी है फिर कोई एक दोस्त बना लें !
...
जज्बात लेखकों के क्या खूब बिक रहे हैं
बिकवाल कोई और है, खरीददार कोई और !
...
क्या खूब आए, और कब आकर चले गए
न चाहते हुए भी, हमें दीवाना बना गए !!
...
किसी न किसी दिन, हम भी चुनिन्दा रचनाएं लिखेंगे
सच ! आज नहीं तो कल, जरुर सारे जग में छाएंगे !!
...
बम फूटते हैं, कुछ मरते हैं, कुछ हंसते हैं, कुछ रोते हैं
कुछ मरने से बच जाते हैं, कुछ जीते - जी मर जाते हैं !
...
कब तलक करते रहें हम शुक्रिया तेरा सनम
न मौत है, न जिन्दगी, हर घड़ी तेरे सितम !
...
अभी मुफलिसी का दौर है जाने भी दो यारो
फिर किसी दिन, हम उन्हें भी आजमाएंगे !
...
कहीं दूर सन्नाटे में सिसकियाँ ले रहा है कोई
चीखता, पुकारता, मुझे याद कर रहा है कोई !
...
मौसम, रुतें, फिजाएं, सब कुछ बदल गया है 'उदय'
उफ़ ! कल भी वो खामोश थी, आज भी खामोश है !!

बेजान कमरा ...

हे यमदूतो
मेरी प्रार्थना सुनकर
तुम, चुप-चाप, चले आओ
मुझे, तुम्हारा इंतज़ार है !

इस ऊंची हवेली के
पीछे बने, बेजान कमरे में !

मैं, ज़िंदा हूँ अभी
शायद, ज़िंदा रहूँगा, मरुंगा नहीं
तुम्हारे आने तक !

पर तुम, देर न करो, आने में
जल्दी, जल्दी, और जल्दी आ जाओ
मुझे
अपने सांथ ले जाकर
किसी शांत, एकांत कब्रिस्तान में
दफ्न कर दो, मार कर, या जीते जी !

क्यों, क्योंकि
अब मेरा दम घुटने लगा है
मेरी ही बनाई हुई, बनवाई हुई
इस आलीशान हवेली के
पीछे बने, इस बेजान कमरे में !

शायद अभी भी मेरे बेटे-बहु
जश्न मना रहे होंगे, अकेले अकेले
मुझे -
इस बेजान कमरे में अकेला छोड़कर !!

Sunday, July 17, 2011

कदम कदम !

रोज कदम हों
नए नए
और रोज बढ़ें हम
कदम कदम
एक दिन
मंजिल आ जायेगी
जब रोज चलें हम
कदम कदम !

कदम उठाएं
कदम बढाएं
कदम चलाएं
चलते जाएं, बढ़ते जाएं
न ठहरें, न थमें कहीं
एक मंजिल हो, एक कदम हों
तुम और हम हों, कदम कदम !

कदम कदम
हम चलते जाएं
चलते जाएं, बढ़ते जाएं
तूफानों से लड़ते जाएं
न हारें
और न घवराएं
पहुँच रहे हैं, पहुँच गए हैं
तेरे मेरे, हम सब के
मंजिल मंजिल, कदम कदम !!

Saturday, July 16, 2011

... वरना अब नहीं मुमकिन बसर !!

सिर पटक पटक के हमने, लहु-लुहान कर लिया
उफ़ ! ये क्या लिखा तूने, जो समझ नहीं आया !
...
लिख लीं जाती हैं साहित्यिक किताबें
कभी चलते चलते, कभी रुकते रुकते !
...
अब किसे इंसा कहें, और किसे शैतां कहें
मर गए इंसान थे, या मार रहे इंसान हैं !
...
दिल्ली एक मंच से बढ़कर, कहीं कुछ भी नहीं है
ये और बात है, अभी हमने कदम रक्खा नहीं है !
...
ये मुफलिसी का दौर भी, अब तो बस जाने को है
जल्द ही फिजाओं में, नया परचम लहराने को है !
...
बहुत हुआ, और बहुत हो गया, भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचार
बर्दास्त नहीं अब होगा हमको देश में बढ़ता अत्याचार !

...
हे 'खुदा', अब चाहिए तेरा असर
वरना अब नहीं मुमकिन बसर !
...
एक एक धमाके से हमें होश आ गया
वरना हम, हर घड़ी बेहोश फिरते थे !
...
दो घड़ी की सांस मुझको बक्श दे मेरे 'खुदा'
देख फिर कैसे वतन में इंकलाबी आयेगी !!

काला चूना !

हम इतने
नाजुक, कोमल, भोले हैं
गर चाहते भी तो
खुद को बेच नहीं पाते !
गर होते हम
चतुर, चालाक, चांडाल
तब इतना तो तय था
बेच भी देते खुद को
और लगा के चूना
खरीददार को
जेब में रखते पैसा
और खुद ही
घर भी वापस आ जाते !!

Friday, July 15, 2011

सच ! वो भूखा भूखा ज़िंदा है !!

नहीं चाहता, अब, मैं लिखना
कुछ ऐसी-वैसी, कविताएं
नदियाँ, झरने, धरा, गगन
फूल, खुशबू, चूंड़ी, कंगन
नारी, प्रेम, चुम्बन, आलिंगन
ये रचनाओं में खिलते हों !

कोई कहे, कहता रहे
नहीं फर्क अब पड़ता मुझको
क्या रक्खा है लिखने में
ये छोटी-मोटी रचनाएं
चलो लिखें, कुछ ऐसा लिक्खें
जिसमें जीवन चलता हो !

रचता हो, बसता हो जीवन
छलके, उमड़े, उमड़ पड़े
कि - कैसे जीवन चलता है
और कैसे मौत नहीं आती
क्यों बढ़ती है बेचैनी
जब रातें लम्बी होती हैं !

कोई पूछे, उससे जाकर
क्यों उसको नींद नहीं आती
कब सोया, कब जागा था
उफ़ ! ये भी उसको पता नहीं
कितने दिन हैं बीत गए
सच ! वो भूखा भूखा ज़िंदा है !!

गुरु की जरुरत क्यों होती है !

एक जिज्ञासु व उत्साही बालक नदी किनारे पीपल पेड़ के पास बनी कुटिया में निवासरत औघड़ बाबा के पास पहुंचा, बाबा जी को प्रणाम करते हुए ...
बालक - बाबा जी मैं आपसे कुछ जानना चाहता हूँ यदि आपका आशीर्वाद हो तो !
बाबा जी - हाँ पूंछो क्या जानना चाहते है वत्स !
बालक - बाबा जी, क्या बिना किसी को गुरु बनाए भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है !
बाबा जी - हाँ, जरुर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता !
बालक - बाबा जी मैं बिना किसी को गुरु बनाए ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, क्या यह संभव हो सकता है !
बाबा जी - हाँ, जरुर संभव है किन्तु ज्ञान कब व कितने समय में प्राप्त होगा इस बात की कोई समय सीमा निश्चित नहीं होगी !
बालक - क्या यह भी संभव है कि मैं ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन भर भटकता रहूँ और ज्ञान प्राप्त न हो !
बाबा जी - हाँ, यह भी संभव है ... वत्स अब तुम जाओ, मुझे कुछ काम करना है !
बालक - बाबा जी, बस एक सवाल और ... !
बाबा जी - ( बीच में ही टोकते हुए ) वत्स अब तुम जाओ, मुझे कुछ जरुरी काम करने हैं !
बालक - प्लीज बाबा जी, बस एक सवाल !
बाबा जी - हाँ, पूछो !
बालक - गुरु की जरुरत क्यों होती है !
बाबा जी - वत्स, गुरु की जरुरत ... जरुरत इसलिए होती है कि गुरु सदैव ही सही मार्ग बताता है, सांथ ही सांथ गुरु के द्वारा बनाया हुआ मार्ग भी सहजता से शिष्य को प्राप्त हो जाता है, उदाहरण के तौर पर यदि तुम्हें दिल्ली जाना है तब तुम भटकते-भटकाते, पूंछते-ताछते, दिल्ली तो पहुँच जाओगे किन्तु कितना समय लगेगा, कितनी परेशानियों का सामना करना पडेगा यह सुनिश्चित नहीं होगा और यह भी संभव है कि तुम दिल्ली के स्थान पर कहीं और पहुँच जाओ अर्थात दिल्ली पहुँच ही न पाओ ... यदि तुम्हारे पास एक जानकार गुरु होगा तब यह मार्ग तुमको सहजता से सुलभ हो जाएगा, भले ही थोड़ी-बहुत कठिनाइयों का सामना पड़े, थोड़ी देर-सबेर भी हो सकती है, पर तुम पहुंचोगे तो सीधे दिल्ली ही पहुंचोगे !!

गुरुओं का गुरु !

"अक्खड़ बाबा" का एक शिष्य - कृपालु शाम को आश्रम में आते ही बाबा के प्रिय कुत्ते कालू के सामने दो अगरबत्ती जलाकर दो समोसे भेंट स्वरूप चढ़ा कर अपनी कुटिया की ओर जाने लगा ... यह सब देख बाबा जी कृपालु पर भड़क गए - साले, निकम्मे, तुझे मैंने अपना शिष्य बना कर बहुत बड़ी भूल की है जा निकल जा आश्रम से, आज से तू मेरा शिष्य नहीं रहा ... बाबा जी का क्रोध देखकर कृपालु भी सन्न रह गया, अपना बोरिया-बिस्तर समेटते हुए, धीरे से बाबा जी से पूछने लगा - हे प्रभु, मेरा अपराध क्या है जब तक आप मुझे बताएंगे नहीं, मैं पश्चाताप कैसे करूंगा ... निकम्मे, नालायक तुझसे अच्छा तो ये मेरा कालू है जो कम से कम मेरे प्रति बफादार तो है, तेरी हिम्मत कैसे हुई जो आज जैसे महापवित्र दिन पर तूने मेरा अपमान करते हुए कालू को अगरबत्ती व प्रसाद ... प्रभु क्षमा करें, मुझे माफ़ करें, मुझसे न ही कोई गलती हुई है और न ही मैंने आपका कोई अपमान किया है, "कालू" अपने आश्रम का बफादार सेवक व चौकीदार है जो रात-दिन अपनी सेवा में खडा रहता है इस नाते ही मैंने आश्रम में प्रवेश करते ही दया भाव से उसका सम्मान किया है, और आप तो साक्षात मेरे "भगवान" हैं आप मेरे "महागुरु" हैं और आपका पालतु कालू मेरा "छोटा गुरु" है, बस स्नान कर मैं आपकी सेवा में हाजिर होने ही वाला था इतने में ही आप भड़क गए, मैं अपनी इस छोटी सी कार्यशैली के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ कृपया मुझे क्षमा करते हुए मेरी बात सुन लें ... ( अक्खड़ बाबा तनिक नरम होते हुए शांत स्वर में बोले ) ... अच्छा सुना, आज तुझे ही सुन लेते हैं ... प्रभु आप मेरे परम गुरु हैं आपसे ही मैंने सम्पूर्ण शिक्षा ग्रहण की है किन्तु आपसे प्राप्त शिक्षा में मुझे आपके जैसा ही अक्खडपन मिला है, वर्त्तमान समय में इस अक्खड़पन के परिणाम स्वरूप जीवन चलाना कितना मुश्किल है यह आप भी भली-भाँती जानते हैं, पिछले डेढ़-दो माह पहले अपने आश्रम में खाने के लाले पढ़ गए थे तब ही मैंने आपके इस महान कुत्ते "कालू" से कुछ शिक्षा ग्रहण की थी जिसके परिणाम स्वरूप तब से लेकर आज तक अपना आश्रम खुशियों से फला-फूला है ... ( बाबा जी पिघलते हुए) ... ये तू क्या बोल रहा है कृपालु, इतनी बड़ी बात, तूने मुझसे छिपा कर रखी, अपना "कालू" ... हाँ प्रभु, मुझे याद है उन दिनों अपने आश्रम में दो दिनों तक चूला भी नहीं जला था मैं इस पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर आश्रम और आपकी चिंता में डूबा हुआ था ठीक उसी समय दो दिन का भूखा अपना यह महान "कालू" मेरे पास आया और सामने खडा होकर "दुम" हिलाने लगा, बहुत देर तक "दुम" हिलाते रहा, ठीक उसी पल मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी और मुझे उसके "दुम" हिलाने के भाव से "समर्पणभाव" रूपी शिक्षा मिली, शिक्षा ग्रहण करते ही मैं भिक्षा हेतु निकल पडा, वह दिन है कि आज का दिन है हमारे आश्रम में प्रतिदिन नए नए पकवान बनते हैं सिर्फ आप, मैं और कालू ही नहीं वरन आठ-दस नए लोग भी प्रसाद ग्रहण करते हैं यह सब इस महान "कालू" से प्राप्त शिक्षा का प्रतिफल है, यदि फिर भी आपको लगता है मुझसे कोई गलती हुई है तो मैं पुन: आपसे क्षमा मांगता हूँ, मुझे क्षमा करें प्रभु ... ( बातें सुनते सुनते अक्खड़ बाबा भावुक हो गए उनकी आँखें नम सी हो गईं तथा कृपालु को गले लगाते हुए बोले ) ... पुत्र तू महान है, आज तूने यह सिद्ध कर दिया कि शिक्षा किसी से भी ग्रहण की जा सकती है फिर भले वह "कालू" ही क्यों न हो, ये दुनिया तेरे भक्ति भाव को सदैव याद रखेगी, मैं धन्य हुआ तेरे जैसा महान शिष्य पाकर, मेरा आशीर्वाद है कि तू एक दिन "गुरुओं का गुरु" बनेगा !!

Thursday, July 14, 2011

योग्य गुरु की तलाश !

भईय्या प्रणाम ... खुश रहो, आओ अनुज बैठो ... भईय्या मैं आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ ... अरे, इसमें लेने की क्या बात है, मेरा आशीर्वाद तो सदैव ही तेरे सांथ है ... वो तो है भईय्या पर आज मैं आपको अपना "गुरु" बनाना चाहता हूँ ... अरे, तू तो जानता है कि मैं खुद ही किसी "गुरु" की तलाश में हूँ आज तक मुझे ही कोई गुरु नहीं मिल पाया है अर्थात मैं खुद ही किसी का शिष्य नहीं बन पाया हूँ फिर कैसे किसी का "गुरु" बन सकता हूँ "गुरु-शिष्य" बनना, बनाना, सदियों से चली आ रही एक परम्परा है जिसके विधि-विधान हैं, कोई भी, कहीं पर भी, किसी का भी गुरु, किसी का भी शिष्य नहीं बन सकता, फिर तू तो खुद इतना समझदार है ऐसी बिन सिर-पैर की बातें कैसे कर रहा है ... वो सब तो ठीक है भईय्या, पर आज "गुरु पूर्णिमा" हैं पवित्र व अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है आज सुबह मैं "ब्रम्हमुहूर्त" में उठ गया था लगभग दो घंटे यह विचार कर ध्यान-मग्न रहा कि आज मुझे कम से कम एक नेक काम तो जरुर करना है और वो नेक काम "गुरु" बनाना है किन्तु दो घंटे के चिंतन-मनन के बाद भी मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया कि आखिर किसे अपना "गुरु" बनाया जाए, फिर लगभग ढाई-तीन घंटे घर पर बैठ कर भी गुन्ताड लगाता रहा कि कोई न कोई तो जरुर होगा जो मेरा "गुरु" बन सकता है अर्थात मैं जिसका "शिष्य" बन सकूं, फिर भी मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया, घंटों की माथा-पच्ची देखते देखते मेरी धर्मपत्नी ने आकर कहा, सुनो जी - तुम्हारा सारा जीवन भईय्या की सलाह-मशवरे पर ही चल रहा है फिर सीधा जाकर भईय्या को ही अपना "गुरु" क्यों नहीं बना लेते ! वैसे तो सालों-साल से मैंने अपनी पत्नी के मुंह से कभी भी "अकलमंदी" की बात नहीं सुनी थी पर आज उसने निसंदेह जबरदस्त "अकलमंदी" की बात कह दी, इसलिए मैं सीधा उठकर आपके पास चला आया, अर्थात आप से अच्छा व श्रेष्ठ "गुरु" मुझे इस जीवन में तो शायद कहीं नहीं मिल सकता, अब आप मुझे अपना "शिष्य" बना लीजिये ताकि मेरा ये जीवन धन्य हो जाए ... देखो अनुज, तुम स्वमेव एक ज्ञानी पुरुष हो, मुझे एक बात बताओ कि क्या कोई भी ज्ञानी पुरुष "गुरु पूर्णिमा" जैसे पवित्र दिन पर किसी "नासमझ" की बातों में आ सकता है ! ... नहीं भईय्या, कतई नहीं आ सकता ... फिर तुम्हारे जैसा विद्धान कैसे किसी "नासमझ" की बातों में आ गया ... मैं समझा नहीं भईय्या ... अरे यार, सीधी सी बात है जैसा तुम कहते हो और कहते रहे हो कि तुम्हारी धर्मपत्नी ने सालों-साल में कभी समझदारी की बात नहीं की है फिर आज उसकी बात पर तुम कैसे यकीन कर सकते हो, वो भी तुम्हारे जैसा ज्ञानी-विद्धानी ... भईय्या लगता है कि आप मुझे टरका रहे हो या फिर उलझा रहे हो ... नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, तू अभी जा, कुछ सोच-विचार कर ले, और कुछेक समझदारों से भी सलाह-मशवरा कर ले कि क्या तेरी धर्मपत्नी "समझदार" है जिसकी बातों पर यकीन किया जा सकता है, अगर वो समझदार निकल गई, तो समझ लेना कि - तुझे "गुरु" मिल गया ... !!

बम धमाके ...

बम धमाके ...
शोर-गुल, सनसनी, दहशत
भगदड़, अफरा-तफरी
रोते-गाते
छिपते-भागते
कुछ, थम से गए ...
इधर-उधर, चारों ओर !

कुछ
लहू-लुहान
तड़फते - बिलखते
कुछ के चिथड़े उड़े हुए
तो कुछ
चिथड़ों चिथड़ों में
मरे, बिखरे हुए !

कुछ
मरे, अधमरे
कौन, कौन था ?
कौन, किसका था ?
पहचानना मुश्किल
देखते देखते
आसपास भीड़-भाड़ !

पुलिस, गाड़ियां
फायर बिग्रेड, एम्बूलेंस
मीडिया, कैमरे
चारों ओर
शोर
जांच, पड़ताल, पूछताछ !

लाशें उठने लगीं
घायल
अस्पताल की ओर
हो-हल्ला, खौफ, दहशत
गवाह, संदेही, पुलिस
ब्रेकिंग न्यूज ...
पांच मरे, पच्चीस घायल, हाई एलर्ट !!

भ्रष्टाचारी उबाच ...

मैं मानता हूँ कि -
मैं, एक
भ्रष्ट भ्रष्टतम भ्रष्टाचारी हूँ
पर, तुम
मेरे गुनाहों की सजा
मुझे नहीं दे सकते
क्यों, क्योंकि -
ये भ्रष्ट गुनाह
मैंने अपने लिए नहीं
वरन
अपने बच्चों व परिवार के लिए
किये हैं
जब, जो गुनाह मैंने
अपने लिए किये ही नहीं
फिर, तुम कैसे
उनकी सजा
मुझे दे सकते हो
मैं इन सजाओं का
हकदार नहीं हूँ
प्लीज
मुझे माफ़ कर दो !
पर
इन गुनाहों की सजा
तुम
मेरे बच्चों को भी
नहीं दे सकते
क्यों, क्योंकि
इनमें, उनका भी, कोई दोष नहीं है
वे भी बेगुनहगार हैं
प्लीज
उन्हें और मुझे
माफ़ कर दो !
गर, कोई गुनहगार है
तो वो तुम हो ... !!

Wednesday, July 13, 2011

... दिल्ली, हमसे दूर नहीं है !!

शायद
आज नहीं, वो घड़ी है आई
हम पहुंचे
नई दिल्ली भाई
फिर भी
कोशिश होगी अपनी
जल्द हों
हम
दिल्ली में भाई !

आज नहीं
तो कल आना है
हमको भी
दिल्ली आना है
आज नहीं
वो घड़ी नहीं है
रेल नहीं है, टिकट नहीं है
पर
दिल्ली हमसे दूर नहीं है !

एक दिन
हम भी आएंगे
दिल्ली में, हम भी छाएंगे
गीत वहीं, संगीत वहीं है
रण वहीं, और जीत वहीं है
निकट नहीं, पर विकट नहीं है
दिल्ली, हमसे दूर नहीं है !
पर, आज नहीं, वो घड़ी है आई
हम पहुंचे, नई दिल्ली भाई !!

जन्मसिद्ध अधिकार ...

कोई कुछ भी कहे
कहता रहे
हम भ्रष्ट हैं तो हैं
और आगे भी रहेंगे
पर हम किसी के कहने से
चीखने-चिल्लाने से
भ्रष्टाचार नहीं छोड़ेंगे !
भ्रष्टाचार करना
हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है !

जन्मसिद्ध इसलिए कि -
हमने -
भ्रष्ट राजनैतिक कोख से जन्म लिया है
अब -
जब जन्म ले ही लिया है तो
हम -
कैसे पथभ्रष्ट हो सकते हैं !

भ्रष्टाचार
हम करेंगे, करते रहेंगे
न सिर्फ हमारा
वरन
हमारी सारी विरादरी का
ये जन्मसिद्ध अधिकार है !
जय भ्रष्टाचार
जय जय भ्रष्टाचार !!

खट्टी-मीठी, मीठी-खट्टी !!

कितना होता, अच्छा यारा
न तुम रोते, न मैं रोता
खट्टी-मीठी, मीठी-खट्टी
बातें होतीं, राते होतीं !
दोनों मिल के बातें करते
तुम भी हंसते, मैं भी हंसता !
भीड़ न होती, शोर न होता
तुम भी गाते, मैं भी गाता !
हंसते-गाते, गाते-हंसते
जीवन अपना, चलता जाता !
तुम भी थोड़े पागल होते
मैं भी थोड़ा पागल होता !!

Tuesday, July 12, 2011

... नव सृजन की ओर !!

पता नहीं क्या लिखता हूँ
पर, शायद
मैं भी लिखता हूँ
क्या लिखता हूँ, क्यों लिखता हूँ
इसका भी मुझको
बोध नहीं
बस लिखता हूँ, कुछ लिखता हूँ !

हो सकता है, लिखते लिखते
एक दिन
मैं भी, लेखक हो जाऊं
क्या लिखता हूँ
बोध नहीं
पर
कुछ न कुछ तो लिखता हूँ !

काश ! वो दिन भी आ जाए
जब, कोई, मुझसे, कह जाए
तुम
चुपके चुपके, लिखते हो
जो दूजा कोई नहीं लिखता
ऐसा, ही कुछ लिखते हो
तुम, सबसे हट के लिखते हो !!

Monday, July 11, 2011

टुडेज लव : पुलों की चाहतें !

एक न्यूज चैनल के कार्यालय पर शाम ६.०५ बजे एडिटर के चैंबर के दरवाजे को नाक कर दरवाजा खोलते हुए एक महिला रिपोर्टर ...
रिपोर्टर - में आई कम इन सर !
एडिटर - हाँ, अन्दर आ जाओ श्वेता, बैठो, चाय या काफी !
रिपोर्टर - सर, जी नहीं, शुक्रिया, बस घर जाने का टाईम हो गया है, वो तो आपने, काम के बाद मिल कर जाने को कहा था, इसलिए आई हूँ !
एडिटर - श्वेता आपको तो पता ही होगा कि अपने सब-एडिटर राजेश, इस सन्डे से दूसरे चैनल को ज्वाईन करने वाले हैं, वह पोस्ट खाली होने वाली है !
रिपोर्टर - जी सर, यह खबर सब जानते हैं राजेश जी को बड़ा आफर आया है इसलिए वो यहाँ से जा रहे हैं !
एडिटर - शायद तुमको यह पता नहीं होगा कि अपना अगला सब-एडिटर कौन होगा !
रिपोर्टर - हाँ सर यह तो किसी को ... मतलब मुझे नहीं मालुम है !
एडिटर - अभी एक घंटे पहले ही मेरी बॉस के सांथ मीटिंग हुई है ... उन्होंने मेरी राय जानना चाही है कि इस पोस्ट के लिए अपना राकेश कैसा रहेगा ... राकेश तुम्हारा कलिग जो तुम्हारा क्लासमेट भी रहा है ... किन्तु मैंने अभी अपनी राय दी नहीं है मैंने कहा कि कल शाम तक बताता हूँ !
रिपोर्टर - सर ... फिर आप क्या सोच रहे हैं !
एडिटर - श्वेता ... मैं यह सोच रहा हूँ कि पिछले ५ सालों से तुम दोनों मेरे सांथ काम कर रहे हो, दोनों ही काम-काज में एक्सपर्ट हो ... बस कुछेक मामलों में ही राजेश तुम से बीस बैठता है ... पर तुम भी इस पोस्ट को डिजर्व तो करती हो ... !
रिपोर्टर - मैं समझी नहीं आपका मतलब ... मेरा मतलब, बॉस राजेश को ही क्यों प्रिफर कर रहे हैं ... खैर मुझे पता है कि आपकी राय के बगैर बॉस खुद कोई फैसला नहीं करेंगे ... जब आपने यह चर्चा मेरे सामने छेड़ी है तो इसके पीछे आपका कोई न कोई मकसद जरुर होगा ... ( लगभग १-२ मिनट के सन्नाटे के बाद श्वेता बोली ) ... सर, आप चाहते क्या हैं, मेरा मतलब यदि यह पोस्ट मुझे ... बदले में आपकी चाहत क्या है मुझसे ?
एडिटर - देखो श्वेता ... तुम मुझे पिछले पांच सालों से जान रही हो, मैं साफ़-सुथरे ढंग से निष्पक्ष रूप से काम करने में विश्वास रखता हूँ ... मेरे कैरियर में अब तक कोई दाग-धब्बा नहीं है और आगे भी न हो यह ही मेरी कार्यशैली रहती है ... अब तुम मुझसे पूंछ ही रही हो कि मैं चाहता क्या हूँ, तो सुनो ( ... लगभग आधा-एक मिनट शांत रहने के बाद बोले ... ) ... मैं चाहतों के पुल बनाने में विश्वास नहीं रखता किन्तु पुलों पर चाहतें हों इस बात से इंकार भी नहीं करता ... बस, तुम सब-एडिटर के पद को डिजर्व करती हो इसलिए मैंने यह चर्चा तुम्हारे सामने छेड़ना मुनासिब समझा ... !
( चैंबर में लगभग ५-७ मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा, दोनों एक-दूसरे को बीच बीच में निहारते, और कुछ सोच-विचार में उलझे रहे, फिर अचानक श्वेता ने चुप्पी तोडी ... )
... ठीक है सर ... यदि मैं इस पोस्ट को डिजर्व करती हूँ तो समझो करती ही हूँ ... जब करती हूँ तो कोई और कैसे इस पद पर बैठ सकता है ... ( ... श्वेता अपनी कुर्सी से उठ कर एडिटर के हाँथ को पकड़ कर चूमते हुए ... ) ... ओके माय डीयर पुष्कर ... तुम पुल बनाओ और मैं पुलों पर चाहतें ... !!

लक्ष्मण रेखा ...

आज
हर घर के बाहर
एक एक लक्ष्मण रेखा
खिंची हुई है -
कुदरती !

कम से कम
रावण की तो हिम्मत
नहीं
जो रेखा पार कर
घर के अन्दर घुस जाए !

पर, आज
इसकी कोई गारंटी नहीं
कि -
सीताएं ही
घर के, बाहर न जाएं !!

मुंडन संस्कार अर्थात एक साये का उठ जाना !

भईय्या प्रणाम ...
आओ अनुज, खुश रहो, कैसे हो !
ठीक हूँ भईय्या, एक बेहद गंभीर सामाजिक व धार्मिक टाईप की समस्या से कल सामना हो गया, मैं भी ज़रा भौंचक रह गया, और क्या जवाब देता यह भी नहीं समझ पाया !
अरे, क्या समस्या आ गई, वो भी तेरे जैसे समझदार आदमी के पास, हमें भी बताओ, क्या समस्या है !
हाँ भईय्या, हुआ दर असल यह कि कल रात मोहल्ले में एक लड़का जिसकी उम्र लगभग १८-१९ साल होगी, गुजर गया अर्थात स्वर्ग सिधार गया ... अब समस्या यहाँ पर ये आई कि उसके घर में छोटी-बड़ी उम्र के अनेक सदस्य हैं, कहने को भतीजा बड़ा है, और तो और पोते भी हो गए हैं ... कहने का मतलब यह है कि उम्र का कोई हिसाब-किताब नहीं है, अब आप तो समझते ही हो कि गाँव-देहात में बच्चे-पे-बच्चे होते रहते हैं, और शादियों -पे-शादियाँ भी ... मतलब रिश्ते में उम्र का छोटा-बड़ा रिश्ता अर्थात उम्र से भी बड़ा कभी कभी रिश्ता निकल आता है ... अब यहाँ पर समस्या यह है कि अग्निदाह संस्कार के बाद कौन कौन "मुंडन" कराएगा तथा कौन कौन नहीं कराएगा ... अर्थात सामाजिक व धार्मिक रीतिरिवाजों के अनुसार "मुंडन" किसको कराना चाहिए और किसको नहीं कराना चाहिए, ये समस्या सामने आ के खड़ी हो गई !
हाँ, सच कहा, समस्या तो है पर उतनी गंभीर नहीं जितनी तुझे लग रही है !
भईय्या सिर्फ मुझे ही नहीं, कल रात को तो गाँव के चबूतरे पर चौपाल लगी थी उसमें यह मुद्दा उठ गया ... पर कोई स्पष्ट समाधान नजर नहीं आया ... इसलिए ही मैं आज सुबह सुबह आपके पास आया हूँ ... अब आपके अलावा गाँव में और है कौन, जिससे समस्या का समाधान ... !
अरे, कोई भी पुराना आदमी बता देगा !
लगभग सभी पुराने, बुजुर्ग तो थे ही, फिर भी "कन्फ्यूजन" बना हुआ था ... अब आप ही बताओ, समाधान !
आ, पास आकर बैठ, और "कान खुजा के बैठ" ... एक ही बात बार बार नहीं बताऊंगा ... बात दर असल यह है कि "मुंडन संस्कार" की परम्परा लम्बे अर्से से चली आ रही है, अब इसके सामाजिक व धार्मिक तौर-तरीके क्या हैं वह तो मैं नहीं जानता, पर जितना सुना और जाना है मैंने, उसके अनुसार ही बता रहा हूँ ... तू मुझसे तर्क-वितर्क के हिसाब से कोई पोथी-पुराण संबंधी तथ्य मत पूंछने बैठ जाना, क्योंकि वह मैं नहीं दे पाऊंगा, वह तो कोई पंडित या शास्त्रों का जानकार ही बता पायेगा ... अगर तू "कान खुजा" के बैठ गया है तो सुन ... किसी भी बात को दोबारा नहीं बताऊंगा !
हाँ भईय्या ... आप बताओ ... कान भी खुजा लिए हैं और आँख भी मींड ली हैं !
बहुत बढ़िया ... तू काफी समझदार हो गया है, कान खुजाने के सांथ सांथ आँखे भी मींड कर बैठ गया है मतलब आँख और कान दोनों खुले रखेगा, शाबास ... तो सुन, सिर के बाल मानव शरीर में "साये" की तरह होते हैं अर्थात सुरक्षा-रक्षा के प्रतीक होते हैं, दूसरी तरह से कह सकते हैं मन, मस्तिष्क, आत्मा, सिर, के ऊपर "साया' के प्रतीक के रूप में होते हैं, सीधे शब्दों में कहूं तो "साया" होते हैं भले रक्षा कर पाएं या नहीं ... ठीक इसी प्रकार सामाजिक व पारिवारिक चलन में "रिश्ते" को "उम्र" से बड़ा माना गया है, फिर भले किसी की "उम्र" कम ही क्यों न हो पर यदि वह "रिश्ते" में बड़ा है तो "बड़ा" ही माना जाएगा ... तात्पर्य यह है कि अगर "चाचा" उम्र में छोटा है और "भतीजा" उम्र में बड़ा है इस स्थिति में "रिश्ते" के हिसाब से "चाचा" ही बड़ा माना जाएगा ... और जो रिश्ते में बड़ा है वह ही बड़ा रहेगा तथा सभी छोटों को उनके सामने झुकना पडेगा अर्थात अदब से पेश आना पडेगा, उनकी आज्ञा का पालन करना पडेगा ... अब हम तेरे सवाल पे आते हैं, किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसकी "उम्र" को महत्त्व न देते हुए "रिश्ते" को महत्त्व दिया जाएगा अर्थाक मृतक व्यक्ति यदि "रिश्ते" में बड़ा है तो सभी "छोटे" लोगों को "मुंडन संस्कार" के दौरान रीति-नीति अनुसार अपने अपने सिर के बाल कटवाना चाहिए ... बाल कटवाने का सीधा-सीधा तात्पर्य यह है कि उसके ऊपर से एक "साया" का चला जाना ... अर्थात जिस व्यक्ति ने भी "मुंडन संस्कार" के दौरान सिर के बाल कटा कर "मुंडन" कराया है उसे देखते ही समाज के अन्य लोग समझ जायेंगे कि उसके सिर से एक सुरक्षा रूपी "साया" उठ गया है ... अर्थात हर उस व्यक्ति को जो मृतक से "रिश्ते" में छोटा है उसे निसंकोच सामाजिक व पारिवारिक मर्यादा के अनुसार "मुंडन" करा लेना चाहिए !!

Sunday, July 10, 2011

गर होता, तो मैं 'खुदा' होता ...

ठीक ही कहता है 'उदय', दोस्ती फरेब है
समझ गए तो ठीक, न समझे तो ठीक !
...
आँखें रिमझिम रिमझिम बरसें, तो ही अच्छा है
गर मुसलाधार बरस गईं, तो सुनामी का खतरा है !
...
चाँद, रात, प्रेम, तुम, हम, और राहें
उफ़ ! कुछ भटका, कुछ अटका था !
...
बचपन की यादें, आज भी आँखों में उतर आती हैं 'उदय'
जब जब कदम मेरे, गलियों-चौबारों से गुजरते हैं !
...
उफ़ ! वो जब हमें, छू कर गुजरते हैं
फिर हर घड़ी जन्नती शाम होती है !
...
पहुँच जाते हैं सभी अपनी मंजिलों पे
कभी रुकते रुकते, कभी चलते चलते !
...
क्या करें मजबूर हैं, सत्ता के नशे में चूर हैं
एक, दो, तीन, नहीं, सारे खट्टे अंगूर हैं !
...
दिल टूट के, टुकड़ों टुकड़ों में धड़क रहा है मेरा
पहले एक में था, अब सैकड़ों में बसर है तेरा !!
...
एक लम्हा दिया था जालिम ने, आजमाने को
अब खुद जालिम, लम्हे लम्हे पे हमकदम है !
...
गर होता, तो मैं 'खुदा' होता
नहीं हूँ तो, कुछ भी नहीं हूँ !!

... गिराने से, गिर जाने से, सरकार !!

कविता : सरकार !

कईयों ने, कई लोगों ने
बहुत हिम्मत की
और बहुत जोर लगाया
पर, न गिरा पाए
और न ही हिला पाए
सरकार !

सच ! जोर ...
तो, जी-तोड़ लगाया
पर, शायद, कहीं
चूक हो गई
गिराने, हिलाने में
सरकार !

नहीं तो, कब की
गिर जाती, क्या रखा है
कौन-सी मजबूत है
दो-चार, लंगड़े-लूले
खम्बों, पे ही तो टिकी है
और खुद की, दीवारें भी
तो कमजोर हैं
हिल रही है, खुद-ब-खुद
सरकार !

फिर भी
अब क्या कहें
अब किसी का, हाँथ
थोड़े ही न पकड़ सकते हैं
मदद करने को, मदद को
बे-वजह ही, गिराने में
सरकार !

हम, हम को
किसी से, क्या लेना-देना
कौन-सा हमको
कुछ, फ़ायदा होने वाला है
मदद करने से, या
गिराने से, गिर जाने से
सरकार !!

Saturday, July 9, 2011

आम आदमी ... भ्रष्टाचार एक गम्भीर समस्या !!

अचरज ...

तुम करते रहो
अचरज
मुझे समझने, समझाने में
भूलने, याद करने में !

सच ! मैं ...
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे !

कभी तू डूब जाता है
मुझमें
कभी कहता है
मुझे डूब जाने को !

फर्क क्या है
तेरे, या मेरे
डूब जाने में
शायद, कुछ भी नहीं !

फिर भी होता है
तुझे
अचरज
हर घड़ी, हर पल !

क्यों, किसलिए -
सिर्फ इसलिए
कि -
मैं एक स्त्री हूँ ... !!

Friday, July 8, 2011

... पदयात्रा, स्वमेव, पूर्ण मानी जायेगी !!

कविता : पदयात्रा !

हे प्रभु
ये कौनसी, कैसी पदयात्रा है
जिसमें, चलते चलते
पदयात्री
मार्ग से, यात्रा से
कहीं और चला गया
सफ़र बीच में छोड़कर
यात्रा, और लक्ष्य छोड़कर !

हे प्रभु
क्या ये नया प्रयोग है
यात्रा, पदयात्रा का
या फिर, एक नई खोज है
या एक नई मिसाल है
जिसे हमें, सहयात्रियों को
समझना
और अमल में लाना है !

हे प्रभु
क्या अब, पदयात्री
सीधे ही, या सीधेतौर पर ही
किसी अन्य मार्ग से
या यूं कहें, वायु मार्ग से
सीधे, डायरेक्टली
लक्ष्यस्थल पर उपस्थित हो जायेंगे
क्या ये यात्रा, पदयात्रा
स्वमेव, पूर्ण मानी जायेगी !!

... ये आलम है, खुदी को नीलाम किये बैठे हैं !!

सच ! जिस दिन चाहेंगे, हम खुद को संवार लेंगे
आज मौक़ा हंसी है, किसी दूजे को संवारा जाए !
...
क़त्ल कर के भी सुकूं मिला होगा शायद
तब ही, चील-कऊओं की बाठ जोहे बैठे हैं !
...
बादशाहों की बादशाहतों का ये आलम है 'उदय'
फकीरों की दुआओं से भी कहीं छोटी सल्तनतें हैं !
...
खूब होड़ मची है, सीखने-सिखाने की
काश ! हम भी नौसिखिया होते !!
...
कितनी बेरहमी से तोड़ा है, आशिकी ने दिल हमारा
खामोश बैठे हैं, कहीं कुछ दिखता नहीं अब नजारा !
...
ठीक ही रहा निकलते निकलते निकल लिए
वरना बेवजह ही, लेने के देने पड़ गए होते !
...
मिल जा कहीं, भीड़ में ही सही
समय से परे, कहीं दूर ले चलूँ !
...
तनहा तनहा ही सही, हम गुनगुना लेते हैं
देख तेरे चेहरे पे हंसी, हम मुस्कुरा लेते हैं !
...
किसी को जमीं, तो किसी को आसमां मिल गया
सच ! सफ़र मेरा है जो कहीं दूर तलक जाता है !
...
चलो सरकारें चल तो रहीं हैं, दलाल भरोसे ही सही
कहीं तो ये आलम है, खुदी को नीलाम किये बैठे हैं !!

... "बड़ा लेखक" !!

भईय्या प्रणाम ... आओ अनुज आओ, खुश रहो, कैसे हो ... ठीक हूँ भईय्या, पर ... ये पर क्या लगा रक्खा है, खुल के बता क्या बात है ... भईय्या आप तो जानते ही हो कि मुझे लिखने का शौक है, कुछ दिनों से मेरे मन में "बड़ा लेखक" बनने का ख्याल आ रहा है, क्या करूँ कुछ समझ नहीं आया इसलिए आपके पास आया हूँ ... अच्छा ये बात है, वैसे तो, तू लिखता तो अच्छा ही है फिर संकोच किस बात का, लिखते रहो, लिखते लिखते एक दिन "बड़े लेखक" बन जाओगे ! ... नहीं भईय्या, ऐसे-वैसे लिखते रहने से कोई बड़ा लेखक नहीं बन जाता है इसलिए ही तो मैं आपके पास आया हूँ, आशीर्वाद लेने ... यार तू बहुत सीरियस लग रहा है, इसमें चिंतित होने की क्या बात है जाओ किसी "लेखक बिरादरी" में घुस जाओ, अपने आप बड़े लेखक बन जाओगे ... भईय्या आप मुझे टरकाने की कोशिश कर रहे हैं ... अरे यार, तुझे टरका नहीं रहा, आजकल के जमाने का "बड़ा लेखक" बनने का सही रास्ता बता रहा हूँ, जा घुस कर देख ले किसी भी "बिरादरी" में, यदि तू बड़ा लेखक नहीं बना तो आकर कहना ... आप बिलकुल सीरियस हैं न ... हाँ हाँ सीरियस ही हूँ, क्योंकि यही आज के जमाने का सबसे सही "शार्टकट" है "बड़ा लेखक" बनने का, पर एक बात का ख्याल हमेशा रखना, "जी हुजूरी" करने तथा "तेल लगाने" से ज़रा भी पीछे मत हटना, समझ रहा है न मेरा मतलब, फिर देखते हैं तुझे आज के जमाने का "बड़ा लेखक" बनने से कौन रोकता है ... अब आपका आशीर्वाद मिल गया, तो समझो मैं "बड़ा लेखक" बन गया, मेरा मतलब बन ही जाऊंगा, आपके आशीर्वाद से न जाने कितने लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए ... बस, बस, अब तू यहीं शुरू मत हो जा, पर एक बात का ख्याल रखना, "गाँठ बाँध के दिमाग" में रख ले, तुझे सिर्फ आज के जमाने का "बड़ा लेखक" बन के ही नहीं रह जाना है वरन ... अब "वरन" को छोडो न भईय्या, अब तो मैं चला, "बड़ा लेखक" बन कर ही आपके पास आऊँगा, प्रणाम भईय्या ... अरे सुन सुन सुन ... !!

Thursday, July 7, 2011

सियासत ...

गरीब, मजदूर, किसान ...
का होना, बने रहना, बेहद जरुरी है
गर ये नहीं रहेंगे, तो, शायद
हम, हमारी सियासतें, भी रहें !

हमें, अपने बजूद, सियासतें, हुकूमतें
बनाए रखने के लिए
इनकी, गरीबों की, गरीबी की
बेहद, निहायत, ज्यादा जरुरत है !

सोचो, गंभीरतापूर्वक सोचो
हम, इन गरीबों को ही समझा-बुझा सकते हैं
वक्त आने पर, बरगला सकते हैं
जरुरत पर इन्हें खरीद भी सकते हैं
इसलिए, इनका होना, बेहद जरुरी है !

जाओ, बचाओ, मत मरने दो, इनके हौसले को
इनका ज़िंदा रहना, हमारे ज़िंदा रहने के लिए
सियासत, हुकूमत, बादशाहत, के लिए
जरुरी है, जरुरी था, और जरुरी रहेगा !

हमारी हुकूमतें, सालों से, सदियों से
इन गरीब, मजदूर, किसान के कांधों पर
टिकी हैं, और आगे भी टिकी रहेंगी !

आओ, प्रण करें, प्रतिज्ञा करें
हमें, गरीब, और गरीबी को ज़िंदा रखना है !

आज के लिए नहीं, उस दिन के लिए
जिस दिन, चुनाव होना है, मतदान होना है
इनका ज़िंदा रहना, बेहद जरुरी है, मतदान के लिए !!