Saturday, February 27, 2010

होली अभिनंदन

होली आई, आई होली
लेकर आई, खुशियां होली

रंग-गुलाल, छेड-छाड
गली-चौबारे, घर-आंगन
गुजिया-सलोनी, लडडू-पेडे
मौज-मस्ती, हंसी-ठिठौली

बूढे-बच्चे, नौकर-मालिक
साहब-बाबू, गुरु-चेले
महिला-पुरुष, दोस्त-दुश्मन
खेल रहे हैं, मिलकर होली

आन-मान-शान, तिरंगा है पहचान
जात- धर्म, रंग हैं ईमान

तेरा- मेरा, रंगों का है मेला
गोरा- काला, होली है पर्व निराला

होली आई, आई होली
लेकर आई, खुशियां होली

............. "होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं".............

Friday, February 26, 2010

"भ्रष्टाचाररूपी दानव"

भ्रष्टाचार ... भ्रष्टाचार ... भ्रष्टाचार की गूंज "इंद्रदेव" के कानों में समय-बेसमय गूंज रही थी, इस गूंज ने इंद्रदेव को परेशान कर रखा था वो चिंतित थे कि प्रथ्वीलोक पर ये "भ्रष्टाचार" नाम की कौन सी समस्या आ गयी है जिससे लोग इतने परेशान,व्याकुल व भयभीत हो गये हैं, न तो कोई चैन से सो रहा है और न ही कोई चैन से जाग रहा है ... बिलकुल त्राहीमाम-त्राहीमाम की स्थिति है ... नारायण - नारायण कहते हुए "नारद जी" प्रगट हो गये ... "इंद्रदेव" की चिंता का कारण जानने के बाद "नारद जी" बोले मैं प्रथ्वीलोक पर जाकर इस "भ्रष्टाचाररूपी दानव" की जानकारी लेकर आता हूं।

... नारदजी भेष बदलकर प्रथ्वीलोक पर ... सबसे पहले भ्रष्टतम भ्रष्ट बाबू के पास ... बाबू बोला "बाबा जी" हम क्या करें हमारी मजबूरी है, साहब के घर दाल,चावल,सब्जी,कपडे-लत्ते सब कुछ पहुंचाना पडता है और-तो-और कामवाली बाई का महिना का पैसा भी हम ही देते हैं, साहब-मेमसाब का खर्च, कोई मेहमान आ गया उसका भी खर्च ... अब अगर हम इमानदारी से काम करने लगें तो कितने दिन काम चलेगा ... हम नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करने लगेगा फ़िर हमारे बाल-बच्चे भूखे मर जायेंगे।

... फ़िर नारदजी पहुंचे "साहब" के पास ... साहब गिडगिडाने लगा अब क्या बताऊं "बाबा जी" नौकरी लग ही नहीं रही थी ... परीक्षा पास ही नहीं कर पाता था "रिश्वत" दिया तब नौकरी लगी .... चापलूसी की सीमा पार की, तब जाके यहां "पोस्टिंग" हो पाई है अब बिना पैसे लिये काम कैसे कर सकता हूं, हर महिने "बडे साहब" और "मंत्री जी" को भी तो पैसे पहुंचाने पडते हैं ... अगर ईमानदारी दिखाऊंगा तो बर्बाद हो जाऊंगा "भीख मांग-मांग कर गुजारा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा"।

... अब नारदजी के सामने "बडे साहब" ... बडे साहब ने "बाबा जी" के सामने स्वागत में काजू, किश्मिस, बादाम, मिठाई और जूस रखते हुये अपना दुखडा सुनाना शुरु किया, अब क्या कहूं "बाबा जी" आप से तो कोई बात छिपी नहीं है, आप तो अंतरयामी हो .... मेरे पास सुबह से शाम तक नेताओं, जनप्रतिनिधियों, पत्रकारों, अफ़सरों, बगैरह-बगैरह का आना-जाना लगा रहता है हर किसी का कोई-न-कोई दुखडा रहता है उसका समाधान करना ... और उनके स्वागत-सतकार में भी हजारों-लाखों रुपये खर्च हो ही जाते हैं ... ऊपर बालों और नीचे बालों सबको कुछ-न-कुछ देना ही पडता है, कोई नगद ले लेता है तो कोई स्वागत-सतकार करवा लेता है .... अगर इतना नहीं करूंगा तो "मंत्री जी" नाराज हो जायेंगे अगर "मंत्री जी" नाराज हुये तो मुझे इस "मलाईदार कुर्सी" से हाथ धोना पड सकता है ।

.... अब नारदजी सीधे "मंत्री जी" के समक्ष ... मंत्री जी सीधे "बाबा जी" के चरणों में ... स्वागत-पे-स्वागत ... फ़िर धीरे से बोलना शुरु ... अब क्या कहूं "बाबा जी" मंत्री बना हूं करोडों-अरबों रुपये इकट्ठा नहीं करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ... बच्चों को विदेश मे पढाना, विदेश घूमना-फ़िरना, विदेश मे आलीशान कोठी खरीदना, विदेशी बैंकों मे रुपये जमा करना और विदेश मे ही कोई कारोबार शुरु करना ये सब "शान" की बात हो गई है ..... फ़िर मंत्री बनने के पहले न जाने कितने पापड बेले हैं, आगे बढने की होड में मुख्यमंत्री जी के "जूते" भी उठाये हैं ... समय-समय पर "मुख्यमंत्री जी" को "रुपयों से भरा सूटकेश" भी देना पडता है अब भला ईमानदारी का चलन है ही कहां !

... अब नारदजी के समक्ष "मुख्यमंत्री जी" ... अब क्या बताऊं "बाबा जी" मुझे तो नींद भी नहीं आती, रोज "लाखों-करोडों" रुपये आ जाते हैं ... कहां रखूं ... परेशान हो गया हूं ... बाबा जी बोले - पुत्र तू प्रदेश का मुखिया है भ्रष्टाचार रोक सकता है ... भ्रष्टाचार बंद हो जायेगा तो तुझे नींद भी आने लगेगी ... मुख्यमंत्री जी "बाबा जी" के चरणों में गिर पडे और बोले - ये मेरे बस का काम नहीं है बाबा जी ... मैं तो गला फ़ाड-फ़ाड के चिल्लाता हूं पर मेरे प्रदेश की भोली-भाली "जनता" सुनती ही नहीं है ... "जनता" अगर रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार अपने आप बंद हो जायेगा .... पर मैं तो बोल-बोल कर थक गया हूं।

... अब नारद जी का माथा "ठनक" गया ... सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और प्रदेश का सबसे बडा भ्रष्टाचारी "खुद मुख्यमंत्री" अपने प्रदेश की "जनता" को ही भ्रष्टाचार के लिये दोषी ठहरा रहा है .... अब भला ये गरीब, मजदूर, किसान दो वक्त की "रोटी" के लिये जी-तोड मेहनत करते हैं ये भला भ्रष्टाचार के लिये दोषी कैसे हो सकते हैं !!

.... चलते-चलते नारद जी "जनता" से भी रुबरु हुये ..... गरीब, मजदूर, किसान रोते-रोते "बाबा जी" से बोलने लगे ... किसी भी दफ़्तर में जाते हैं कोई हमारा काम ही नहीं करता ... कोई सुनता ही नहीं है ... चक्कर लगाते-लगाते थक जाते हैं .... फ़िर अंत में जिसकी जैसी मांग होती है उस मांग के अनुरुप "बर्तन-भाडे" बेचकर, या किसी सेठ-साहूकार से "कर्जा" लेकर रुपये इकट्ठा कर के दे देते हैं तो काम हो जाता है .... अब इससे ज्यादा क्या कहें "मरता क्या न करता" ... ... नारद जी भी "इंद्रलोक" की ओर रवाना हुये ... मन में सोचते-सोचते कि बहुत भयानक है ये "भ्रष्टाचाररूपी दानव" ... !!!

............. "होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं".............

Wednesday, February 24, 2010

लम्हें

अंधकार से इस जीवन में
तुम रोशनी बन कर आ जाओ
मेरे मन के अंधियारों में
एक प्रेम का दीप जला जाओ

खामोश ही बनकर कुछ कहना है
तो अपनी सुन्दर आंखों से, हां कह दो
फ़िर मैं तेरे मन के शब्दों को
खुद-ब-खुद पढ लूंगा

तुम अपने जीवन के कुछ "लम्हें"
मुझको दे दो
उन लम्हों से
मैं अपना जीवन जी लूंगा

हर लम्हे का, एक-एक जीवन कर
इस जीवन में, कई जीवन जी लूंगा

तुम कुछ लम्हें ..................।

Saturday, February 20, 2010

"गुरु-चेले"

"गुरु-चेले" तो सदियों से चले आ रहे हैं और सदियों तक साथ-साथ चलते रहेंगे - दिखते रहेंगे, बात मुद्दे की ये है कि गुरु ने चेले को चेला बनाया या चेले ने गुरु को गुरु बनाया ... सच कहूं तो इस मुद्दे पर लंबी चर्चा-परिचर्चा हो सकती है ... खैर छोडो, असल बात तो ये है कि गुरु के बिना चेले और चेले के बिना गुरु की कल्पना असंभव है जब चेला ही नहीं रहेगा तो गुरु-गुरु कौन चिल्लायेगा और जब गुरु ही न हो तब चेले ... !

"गुरु-चेले" दरअसल पैदा नही किये जाते अपने आप हो जाते हैं जिस तरह नदी बहते-बहते समुद्र में समा जाती है ठीक उसी तरह गुरुओं और चेलों का मिलन स्वमेव हो जाता है .... जब मिलन हो ही गया फ़िर क्या ... दोनों मिलकर कुछ-न-कुछ "गुंताड" में लग जाते हैं और अपना एक अलग अस्तित्व बना कर ही दम लेते हैं, चेले के पीछे नये चेले... चेले ... चेले ... और अनेकों चेलों की भीड लग जाती है .... ऊपर बैठा चेला नीचे बाले चेले का गुरु बन जाता है ..... फ़िर चारों ओर "गुरु-चेले" ... "गुरु-चेले" ... "गुरु-चेले" ... !

..... अब असली मुद्दे पे आ ही जाते हैं ये "गुरु-चेले" चिटठाकार जगत में भी "घुसपैठ" कर चुके हैं ..... अरे भाई इनकी यहां क्या जरुरत ..... सच कहा इनकी यहां जरुरत तो नहीं थी पर क्या करें ..... अस्तित्व, अस्तित्व की लडाई तो कहीं भी हो सकती है, लडाई न भी हो तो क्या "दबदबा" बनाना भी तो जरुरी है .... एक दिन "गुरु-चेले" आपस में बात कर रहे थे संयोग से मैं भी वहां बैठा था दोनों चर्चा मे मशगूल थे ......

... चेला "ब्लाग जगत" में छा जाने के गुर पूंछ रहा था और गुरु भी दनादन छापे पडे थे चेला सुन रहा था गुरु कह रहे थे ... बेटा तू "बडा ब्लागर" है बडे लोग छोटे लोगों के घर पर नहीं जाते है ... अगर चले भी गये तो वहां बैठते नहीं हैं अर्थात टिप्पणी नहीं करते हैं .... अगर हम वहां टीका-टिप्पणी करने लगेंगे तो वे बडे हो जायेंगे फ़िर हम को कौन पूंछेगा ... अगर बहुत ज्यादा जरुरत पडी तो "ई-मेल" ठोक देना उसे कौन देखता है ...

... चर्चा जारी थी दुर्भाग्य से स्टेशन आ गया मुझे उतरना था उतर गया ... सिलसिला बीच मे ही टूट गया ... अब आगे क्या कहें ... जय "गुरु-चेले" ... जय "गुरु-चेले" ... जय "गुरु-चेले" !!

Thursday, February 18, 2010

लालची बुढडा

एक महाशय के घर पडौस के गांव से एक परिवार लडकी देखने आया, लडके व उसके माता-पिता का शानदार स्वागत किया गया, बडी लडकी जिसकी शादी की बात चल रही थी वह ही "सझी-संवरी" मिष्ठान इत्यादि परोस रही थी इसी दौरान लडका-लडकी का आपस मे परिचय कराया गया, इसी बीच छोटी लडकी भी चाय का ट्रे लेकर पहुंच गई, वह ट्रे को मेज पर रखकर अभिवादन स्वरूप हाथ जोडकर बैठ गई, स्वल्पाहार व बातचीत चलती रही, इसी बीच लडके व उसके मा-बाप की नजर बार-बार छोटी लडकी पर जा रही थे उसका कारण ये था कि बडी लडकी थोडी सांवली व दुबली थी और छोटी लडकी गोरी व खूबसूरत थी, स्वल्पाहार के पश्चात दोनो परिवार एक-दूसरे से विदा हुए, मेहमानों का हाव-भाव व चेहरे की प्रसन्नता देखकर रिश्ता पक्का लग रहा था इसलिये लडकी का पूरा परिवार खुश था किंतु हां-ना का जबाव नहीं मिला था।

एक-दो दिन बाद लडकी का पिता पडौस के गांव लडके के घर गया, शानदार हवेली थी काफ़ी अमीर जान पड रहे थे लडके व उसके माता-पिता ने बहुत अच्छे ढंग से स्वागत किया और बोले हमें आपके साथ रिश्तेदारी मंजूर है लेकिन एक छोटी सी समस्या है मेरे लडके को आपकी छोटी लडकी पसंद है और उसी से शादी करूंगा कह रहा है। लडकी का पिता प्रस्ताव सुनकर थोडी देर के लिये सन्न रह गया ...... फ़िर बैठे-बैठे ही मन के घोडे दौडाने लगा ..... लडका अच्छा है .....अमीर परिवार है ..... हवेली भी शानदार है .... व्यापार-कारोबार भी अच्छा है ...बगैरह-बगैरह ... उसने परिवार के सदस्यों की राय लिये बगैर ही छोटी लडकी के साथ शादी के लिये हां कह दी ........ हां सुनते ही खुशी का ठिकाना न रहा .... गले मिलने व जोर-शोर से स्वागत का दौर चल पडा ..... खुशी-खुशी विदा होने लगे ..... लडके के पिता ने लडडुओं की टोकरी व वस्त्र इत्यादि भेंट स्वरूप घर ले जाने हेतु दिये।

खुशी-खुशी लडकी का पिता घर पहुंचा रिश्ता तय होने की खुशी मे सबको मिठाई खिलाई ..... पूरा परिवार खुशी से झूम गया .... छोटी बहन-बडी बहन दोनों खुश थे गले लग कर छोटी ने बडी बहन को बधाई दी .......सब की खुशियां देख बाप ने थोडा सहमते हुए सच्चाई बताई ...... सच्चाई सुनकर सन्नाटा सा छा गया ........ दो-तीन दिन सन्नाटा पसरा रहा .... जब सन्नाटा टूटा तो "लालची बुढडे" का चेहरा गुस्से से तिलमिला गया उसे शादी की खुशियां "ना" मे बदलते दिखीं ..... छोटी लडकी ने शादी से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया .......परिवार के सभी इस रिश्ते के खिलाफ़ हो गये।

.....दो-तीन घंटे की गहमा-गहमी के बाद भी कोई बात नहीं बनी तब "लालची बुढडा" गुस्से ही गुस्से में घर से बाहर निकल गया ......... कुछ दूरी पर ही वह मुझसे टकरा गया ....... मैंने कहा क्या बात है भाई, गुस्से मे क्यों चेहरा लाल-पीला किये घूम रहे हो ........ उसने धीरे से सारा किस्सा सुनाया ..... देखो भाई साहब घर बालों ने मेरी "जुबान" नहीं रखी ..... मेरी इज्जत डुबाने में तुले हैं .... कितना अमीर परिवार है अब मैं उन्हे क्या जबाब दूंगा .... उसकी बातें सुनते-सुनते ही मेरे मन में ये विचार बिजली की तरह कौंधा ..... क्या "लंपट बाबू "है, लालच मे बडी की जगह छोटी लडकी की शादी तय कर आया ..... ।

...........अब क्या कहूं मुझसे भी रहा नहीं जाता कुछ-न-कुछ "कडुवा सच" मेरे मुंह से निकल ही जाता है ....... मैने कहा ..... दो-चार दिन के मेहमान हो, वैसे भी एक पैर "कबर" में है और दूसरा "कबर" के इर्द-गिर्द ही घूमते रहता है ... लालच मे मत पडो कोई दूसरा अच्छा लडका मिल जायेगा .....कहीं ऎसा होता है कि बडी की बात चल रही हो और कोई छोटी के लिये हां कह दे ..... घर जाओ, जिद छोडो बच्चों की हां मे ही "हां" है और "खुशी मे ही खुशी" ।

( श्री ललित शर्मा जी द्वारा "लालची बुढडा" की चर्चा अपने ब्लाग मैं तुझ जैसों के मुँह नहीं लगता-चक्कर घनचक्कर "चिट्ठी चर्चा" (ललित शर्मा) की गई है, बहुत बहुत आभार। )


( श्री मनोज कुमार जी द्वारा "लालची बुढडा" की चर्चा अपने ब्लाग "किसी दूसरेके अंदर के जानवर को उकसा कर न जगाएं" की गई है, बहुत बहुत आभार। )

Tuesday, February 16, 2010

जज्बात ...

कौन मिलता है, कब मिलता है
किन हालात में मिलता है
क्या होते हैं "जज्बात" उसके
क्या हम समझते हैं ?

क्यों आया है वो सामने अपने
क्या तमन्ना है दिल में उसके
क्या सोचा हमने ?

क्या समझना चाहा हमने ?
शायद नहीं, क्यों ?
क्योंकि हमें अपनी पडी थी !

हम बोलते गये -
थोपते चले गये, उस पर
कभी हंसकर, कभी मुस्कुरा कर
और कभी खामोश बनकर !

क्या हम सही थे ?
ऎसा नहीं कि हम गलत थे !

शायद उसके "जज्बात"
हमसे बेहतर होते
इस जहां से बेहतर होते !

पर हमने उसे खामोश कर दिया
वह खामोश बनकर
खडा रहा, सुनता रहा
क्या कहता, खामोश बनकर ... !!

Sunday, February 14, 2010

वेलेन्टाईन डे बना समस्या !

आज सुबह-सुबह पता चला "वेलेन्टाईन डे" किसी के लिये प्यार-मोहब्बत का दिन है, तो किसी के लिये मौजमस्ती का, और किसी के लिये खतरे से कम नही है ... भाई साहब हुआ यूं कि "अचानकमार टाईगर रिजर्व क्षेत्र" मे मेरा छोटा-मोटा काम था अकेला जाता तो सोचा एक-दो मित्रों को भी ले चलता हूं, सनडे का दिन है काम का काम हो जायेगा और दोस्तों के साथ छोटी-मोटी "पार्टी" भी हो जायेगी, फ़िर क्या था हम तीन मित्र निकल पडे।

... दोस्तों के साथ सफ़र ... तो बस सफ़र है हंसते-मुस्कुराते, मौज-मस्ती करते ४०किमी का रास्ता कैसे गुजर गया पता ही नही चला, पहुंचकर "दाल,चावल, टमाटर-भाटा-आलू की भुंजी चटनी" बनाने का हुक्म दे दिया, तभी एक मित्र बोला भाई साहब जंगल मे तो मंगल मनायेंगे कुछ "मुर्गा-सुर्गा" भी बुलवा लो, फ़िर एक और हुक्म दे दिया।

... घंटे-दो घंटे मे मेरा भी काम हो गया और हुक्म की तामीली भी हो गई, दो-दो,ढाई-ढाई पैक का वेज-नानवेज व देशी चटनी के साथ "भरपूर" आनंद लेने के बाद मौज-मस्ती करते हुये रात साढे-दस बजे तक वापस अपने-अपने घर आ गये।

... अब यहां तक तो कोई समस्या नही थी ... समस्या की घंटी अभी सुबह सबा-छे बजे मेरे मोबाईल पे बजी, एक दोस्त फ़ोन पर बडबडाने लगा ... तेरे साथ गया था ... बीबी चिल्ला रही है ... नाराज हो गई है ... किस के साथ "वेलेन्टाईन डे" मना कर आये हो ... किस के साथ गुल खिला कर आये हो ... जाओ उसी के साथ रहो मै तो चली मायके ! ... दोस्त की पूरी बातें सुनकर मेरा सिर चकरा गया .... मैने सांत्वना दिया मै आकर भाभी को समझाता हूं ... तू चिंता मत कर !!

... फ़ोन रखकर मै सोच में पड गया ... नींद खुल गई ... सन्नाटा सा छा गया ... मेरी "धरमपत्नी" सो रही थीं चेहरा देख कर मै भी थोडा "सकपका" गया ... कहीं ये "वेलेन्टाईन डे" का भूत मुझे भी न पकड ले .... कहीं ऎसा न हो सुबह-सुबह की चाय भी न नसीब हो .... !!!

Friday, February 12, 2010

वेलेन्टाईन डे / valentineday

किसी का दिया फ़ूल
हाथों में सजाये हैं
तेरे लिये "वेलेन्टाईन डे" पर
झूठी बहार लाये हैं

दिलों में कुछ नही है उनके
इसलिये हाथों मे फ़ूल सझाये हैं
नजर दौडायेगी
तो हर हाथों में फ़ूल पायेगी

उठा नजर
मत देख मेरे हाथों को
देख सकती है, तो देख
"दिल" ही "गुलाब" है मेरा।

Thursday, February 11, 2010

प्रार्थना / prayer

तेरा - मेरा
अंजाने में एक रिश्ता बनता है
हर पल मैं तुझको -
और तू मुझको भाते हैं

मैं चाहूं तू साथ मेरे हो
तू भी चाहे मेरे संग-संग रहना
फ़िर क्यूं
मुझसे तू - तुझसे मैं
तन्हा-तन्हा रहते हैं

मैं पुकार रहा हूं तुझको
तू आजा मेरे "सूने दिल" में
मेरे दिल में रहकर
तू अपना ले मुझको

फ़िर जब देखे ये जग सारा
तो मुझमें तुझको देखे
मुझमें "तुझको" देखे ।

Tuesday, February 9, 2010

मदिरा ...

वह सामने आकर,
मुझको लुभा गई
फ़िर धीरे से, मुझमें समा गई
रोज सोचता हूं,
छोड दूं उसको
शाम हुई ,
उसकी याद फ़िर से आ गई

दूर भागा, तो सामने आ गई
मैं पूछता हूं ,
क्यों छोडती नहीं मुझको
वह "बेजुबां" होकर भी,
मुझसे लड गई
क्यूं भागता है, डर कर मुझसे
तू सदा पीते आया है मुझे
क्या आज मै तुझे पी जाऊंगी !

ये माना,
तेरे इस "सितमगर" शहर में
हर कदम पर "बेवफ़ा" बसते हैं
डर मत
मै बेवफ़ा नहीं - मै बेवफ़ा नहीं।

Saturday, February 6, 2010

भयभीत चिट्ठाकार !

चिट्ठाकार तो बस चिट्ठाकार है वह कुछ भी लिख सकता है, न तो उसे किसी से कुछ पूछने की जरूरत है और न ही किसी से "अनुमती" लेने की जरूरत है . . . सीधे शब्दों मे कहा जाये तो "अपनी ढपली-अपना राग" है ... यूं भी कह सकते हैं वह 'जंगल का राजा' है ... अरे भाई चिट्ठाकार "शेर" है !

... अब हाल तो ये है भाई साहब जंगल का राजा भी चतुर व चालाक "लकडबघ्घों" की बजह से तनिक सहमा व भयभीत रहता है, अब वो पुरानी राजशाही व मान-मर्यादा रह कहां गई है, छोटे-बडों का लिहाज भी नई पीढी के लोग भूलते जा रहे हैं जिसको मौका मिला वो दूसरे को "गटक" गया।

ठीक इसी तरह हमारा "चिट्ठाकार शेर" भी भयभीत रहने लगा है ... अरे इस शेर को किसी से डरने की क्या जरूरत है इसका कोई क्या बिगाड लेगा ? ... अब बिगाडने की बात मत पूछिये साहब ... इस शेर की भी एक "दुम" है दुम से मेरा मतलब "टिप्पणी बाक्स" से है, इस दुम पर कोई महानुभाव कभी-कभी "छोटे-छोटे फ़टाकों की लडी" लगा कर चला जाता है वह धीरे-धीरे फ़ूटते रहती है और "चिट्ठाकार शेर" डरा-सहमा दुम दबाये भागते फ़िरता है।

इससे भी ज्यादा खतरनाक तो "बेनामी" टिप्पणीकार है वह छोटे-मोटे फ़टाकों मे विश्वास नही करता ... वह तो सीधा "बम" उठाता है और लगाकर गुमनाम- अंधेरी गलियों मे चला जाता है .... अब जरा सोचो बम के फ़टने से "चिट्ठाकार शेर" की क्या हालत होती होगी ... अब बेचारा 'भयभीत चिट्ठाकार" करे तो करे क्या !!

Friday, February 5, 2010

हार-जीत ...

हर पल, पाने की चाह
कुछ पल के लिये अच्छी है
समर्पण की भावना
सदा के लिये अच्छी है !

जरा सोचो
हमने क्या खोया - क्या पाया
और जरा सोचो
तुमने क्या पाया - क्या खोया !

जिंदगी की राहों में
जीत कर भी हारते हैं कभी
कभी हार कर भी जीत जाते हैं !

भावना हार-जीत की नहीं
समर्पण की देखो !

जीतने वाले को
और हारने वाले को देखो
खुशी को देखो
और अंदर छिपी मायूसी को देखो !

फ़िर जरा सोचो
कौन जीता - कौन हारा
कौन हारा - कौन जीता

मत हो उदास, जीत कर भी तू
संतोष कर
देख कर मुझको
हारा नही हूं, हारा नही हूं !!

Tuesday, February 2, 2010

अमीर किसान-गरीब किसान

हमारा देश किसानों का देश है कुछ वर्ष पहले तक एक ही वर्ग के किसान होते थे जिन्हे लोग 'गरीब किसान' के रूप में जानते थे जो सिर्फ़ खेती कर और रात-दिन मेहनत कर अपना व परिवार का गुजारा करते थे लेकिन समय के साथ-साथ बदलाव आया और एक नया वर्ग भी दिखने लगा जिसे हम 'अमीर किसान' कह सकते हैं।

... अरे भाई, ये 'अमीर किसान' कौन सी बला है जिसका नाम आज तक नहीं सुना .....और ये कहां से आ गया ... अब क्या बतायें, 'अमीर किसान' तो बस अमीर किसान है .... कुछ बडे-बडे धन्ना सेठों, नेताओं और अधिकारियों को कुछ जोड-तोड करने की सोची.... तो उन्होने दलालों के माध्यम से गांव-गांव मे गरीब-लाचार किसानो की जमीनें खरीदना शुरू कर दीं... और फ़िर जब जमीन खरीद ही लीं, तो किसान बनने से क्यों चूकें !!! ......... आखिर किसान बनने में बुराई ही क्या है........ फ़िर किसानी से आय मे 'इन्कमटैक्स' की छूट भी तो मिलती है साथ-ही-साथ ढेर सारी सरकारी सुविधायें भी तो है जिनका लाभ आज तक बेचारा 'गरीब किसान' नहीं उठा पाया ।

........ अरे भाई, यहां तक तो ठीक है पर हम ये कैसे पहचानेंगे कि अमीर किसान का खेत कौनसा है और गरीब किसान का कौन सा ? ............ बहुत आसान है मेरे भाई, जिस खेत के चारों ओर सीमेंट के खंबे और फ़ैंसिंग तार लगे हों तो समझ लो वह ही अमीर किसान का खेत है, थोडा और पास जाकर देखोगे तो खेत में अन्दर घुसने के लिये बाकायदा लोहे का मजबूत गेट लगा मिलेगा, तनिक गौर से अन्दर नजर दौडाओगे तो एक शानदार चमचमाती चार चक्का गाडी भी खडी दिख जायेगी ...... तो बस समझ लो यही 'अमीर किसान' का खेत है ।

........... अब अगर अमीर किसान और गरीब किसान में फ़र्क कुछ है, तो बस इतना ही है कि अमीर किसान के खेत की देखरेख साल भर होती है, और गरीब किसान के खेत में साल भर में एक बार "खेती" जरूर हो जाती है ।

Monday, February 1, 2010

दोस्ती ...

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें, अपना
हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं !

अब हर कदम पर देखता हूं,
उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता !

संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त',
और दुश्मन किसे कहें।