Tuesday, January 26, 2010

भ्रष्टाचार का बोलबाला


भ्रष्टाचार का चारों ओर बोल-बाला है और-तो-और लगभग सभी लोग इसमे ओत-प्रोत होकर डूब-डूब कर मजे ले रहे हैं, आलम तो ये है कि इस तरह होड मची हुई है कि कहीं भी कोई छोटा-मोटा भ्रष्टाचार का अवसर दिखाई देता है तो लोग उसे हडपने-गुटकने के लिये टूट पडते हैं, सच तो ये भी है कि हडपने के चक्कर मे कभी-कभी भ्रष्टाचारी आपस में ही टकरा जाते हैं और मामला उछल कर सार्वजनिक हो जाता है और कुछ दिनों तक हो-हल्ला, बबाल बना रहता है .......फ़िर धीरे से यह मसला किसी बडे भ्रष्टाचारी द्वारा "स्मूथली" हजम कर लिया जाता है .... समय के साथ-साथ हो-हल्ला मचाने वाले भी भूल जाते हैं और सिलसिला पुन: चल पडता है !

भ्रष्टाचार की यह स्थिति अब दुबी-छिपी नही है वरन सार्वजनिक हो गई है, लोग खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार कर रहे हैं कारण यह भी है कि अब भ्रष्टाचार को "बुरी नजर" से नही देखा जा रहा वरन ऎसे लोगों की पीठ थप-थपाई जा रही है और उन्हे नये-नये "ताज-ओ-तखत" से सम्मानित किया जा रहा है।

भ्रष्टाचार के प्रमाण ..... क्यों, किसलिये ..... क्या ये दिखाई नही दे रहा कि जब कोई अधिकारी-कर्मचारी नौकरी में भर्ती हुआ था तब वह गांव के छोटे से घर से पैदल चलकर बस में बैठकर आया था फ़िर आज ऎसा क्या हुआ कि वह शहर के सर्वसुविधायुक्त व सुसज्जित आलीशान घर में निवासरत है और अत्याधुनिक गाडियों में घूम रहा है ..... बिलकुल यही हाल नेताओं-मंत्रियों का भी है ...... क्यों, क्या इन लोगों की लाटरियां निकल आई हैं या फ़िर इन्हे कोई गडा खजाना मिल गया है?

भ्रष्टाचार की दास्तां तो कुछ इतनी सुहानी हो गई है कि .... बस मत पूछिये.... जितनी भ्रष्टाचारियों की वेतन नही है उससे कहीं ज्यादा उनके बच्चों की स्कूल फ़ीस है ...फ़िर स्कूल आने-जाने का डेकोरम क्या होगा !!!!!!

Monday, January 25, 2010

दीप ...

मैं थका नहीं हूं, तू हमसफ़र बनने आजा
अंधेरे की घटा लंबी है, मेरे संग दीप जलाने आजा !

भटकों को राह दिखाना कठिन है 'उदय'
पर जो भटकने को आतुर हैं, उन्हें राह दिखाने आजा !

गर बांट नही सकता खुशियां
तो बिलखतों को चुप कराने आजा !

'तिरंगे' में सिमटने को तो बहुत आतुर हैं 'उदय'
पर तू 'तिरंगे' की शान बढाने आजा !

अब जंगल में नहीं, भेडिये बसते हैं शहर में
औरत को नहीं, उसकी 'आबरू' को बचाने आजा !

मेरे संग दीप जलाने ... !

Monday, January 18, 2010

कंजूस खोपड़ी

एक दिन ट्रैन में यात्रा के दौरान सामने वाली सीट पर एक महाशय को सूट-बूट मे आस-पास बैठे यात्रियों के साथ टाईमपास करते देखा, वह देखने से धनवान और बातों से धनाढय जान पड रहा था, तभी एक फ़ल्ली बेचने वाला आया, कुछ यात्रियों ने ५-५ रुपये की फ़ल्लियां खरीद लीं तभी उस धनाढय महाशय ने भी फ़ल्ली वाले से २ रुपये की फ़ल्ली मांगी, फ़ल्ली वाले ने उसे सिर से पांव तक देखा और २ रु. की फ़ल्ली चौंगा मे निकाल कर देने लगा तभी महाशय ने व्याकुलतापूर्वक कहा बहुत कम फ़ल्ली दे रहे हो तब उसने कहा - सहाब मै कम से कम ५ रु. की फ़ल्ली बेचता हूं वो तो आपके सूट-बूट को देखकर २ रु. की फ़ल्ली देने तैयार हुआ हूं कोई गरीब आदमी मांगता तो मना कर देता।
वह महाशय अन्दर ही अन्दर भूख से तिलमिला रहे थे फ़िर भी कंजूसी के कारण मात्र २ रु. की ही फ़ल्ली मांग रहे थे फ़ल्ली से भरा चौंगा हाथ मे लेकर २ रु देने के लिये पेंट की जेब मे हाथ डाला तो ५००-५००, १००-१०० के नोट निकले, अन्दर रखकर दूसरी जेब मे हाथ डाला तो ५०-५०,२०-२०,१०-१० के नोट निकले, उन्हे भी अन्दर रखकर शर्ट की जेब मे हाथ डाला तो ५-५ के दो नोट निकले, एक ५ रु का नोट हाथ मे रखकर सोचने लगे तभी फ़ल्ली वाले ने कहा सहाब पैसे दो मुझे आगे जाना है, तब महाशय ने जोर से गहरी सांस ली और नोट को पुन: अपनी जेब मे रख लिया और चौंगा से दो फ़ल्ली निकाल कर चौंगा फ़ल्ली सहित वापस करते हुये बोले- ले जा तेरी फ़ल्ली नही लेना है, फ़ल्ली बाला भौंचक रह गया गुस्से भरी आंखों से महाशय को देखा और आगे चला गया।
महाशय ने हाथ मे ली हुईं दोनो फ़ल्लियों को बडे चाव से चबा-चबा कर खाया और मुस्कुरा कर चैन की सांस ली, ये नजारा देख कर त्वरित ही मेरे मन में ये बिचार बिजली की तरह कौंधा "क्या गजब का 'लम्पट बाबू' है, ..... पेट मे भूख - जेब मे नोट - क्या गजब कंजूस ....... मुफ़्त की दो फ़ल्ली खूब चबा-चबा कर ....... वा भई वाह ..... क्या कंजूस खोपडी है" तभी अचानक उस "लम्पट बाबू" की नजर मुझ पर पडी थोडा सहमते हुये वह खुद मुझसे बोला - देखो न भाई साहब २ रु खर्च होते-होते बच गये एक घंटे बाद घर पहुंच कर खाना ही तो खाना है!!! तब मुझसे भी रहा नही गया और बोल पडा - वा भई वाह क्या ख्याल है ...... लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ।

Saturday, January 9, 2010

शेर

कदम-दर-कदम हौसला बनाये रखना, मंजिलें अभी और बांकी हैं
ये पत्थर हैं मील के गुजर जायेंगे, चलते-चलो फ़ासले अभी और बांकी हैं।
..........................................................
उतर आये थे सितमगर आसमां से, जुल्म ढाने को
वो पत्थर उछाल रहे थे, और पडौसी मुस्कुरा रहे थे।
..........................................................
तेरा अंदाज-ए-सितम कांटों से भी नाजुक निकला
कब आये, कब चोट पहुंचाई, कब निकले, हमें अहसास न हुआ।
..........................................................
मेरे हाथों की लकीरों का, सफ़र अभी लंबा है
सुकूं की चाह तो है, पर अभी थकान बांकी है।
..........................................................
गुनाह इतने किये अब प्रायश्चित मुमकिन नहीं यारा
क्या होगा कहर 'खुदा' का, सोचकर ही सिहर जाता हूं।